Nath samparday
नाथ सम्प्रदाय
Introduction to the Nath samparday
नाथ सम्प्रदाय की
उत्पत्ती ( परिचय )
सिद्ध योगियों से चर्चा
ही इसका आधार है। अग्रांकित
सामग्री केवल एक विचार है जो ना तो वाद-विवाद के लिये है और ना ही हम इस पर अडिग
हैं। इस संबंध में यदि कोर्इ समर्थन या खण्डन प्राप्त होता है तो हम उसे गुण-दोष
के गुरूत्व के आधार स्वीकार करेंगे।यह सम्प्रदाय आदिनाथ भगवान शंकर द्वारा
प्रवर्तित सम्प्रदाय है और सर्वप्रथम उनके नाम के साथ यह पद प्रयुक्त हुआ है। इस
सम्प्रदाय को नाथ सम्प्रदाय की संज्ञा से प्रसिद्ध होने से पूर्व इसे सिद्धमत,
सिद्धमार्ग, योगमार्ग, योगी सम्प्रदाय,
अवधूत मत,अवधूत सम्प्रदाय, कापालिक आदि नामों से जाना जाता रहा है और आज भी ये नाम प्रचलन मेंं है।
इनमेंं से कापालिक संज्ञा के स्थान पर कहीं-कहीं तानित्रक पद का प्रयोग किया जाता
हैं, किन्तु इनमेंं सर्वाधिक
प्रयोग होने वाले पद नाथ और योगी ही हैं।
हठयोग प्रदीपिका नामक ग्रन्थ मेंं नाथ सम्प्रदाय के अनेक सिद्ध योगियों के
नाम दिये गये हैंं जिनके बारे मेंं विष्वास किया जाता है कि, वे सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड मेंं भ्रमणषील हैं। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता है कि,
सर्वप्रथम नव नाथों की उत्पत्ति हुयी जिन्हेंं
अयोनिज अर्थात जन्म की साधारण प्रकि्रया मैथुन और योनि से उत्पन्न नहींं होने वाला
बताया गया है। ‘महार्णव तन्त्र
मेंं कहा गया है कि, ये नवनाथ ही नाथ
सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। इस ग्रन्थ
मेंं नवनाथों को अलग-अलग दिषाओं का अधिष्ठाता बताया गया है। इन नव नाथों की
उत्पत्ति के बारे मेंं ‘योगिसम्प्रदायविष्कृति
(योगाश्रम संस्कृत कालेज हरिद्वार के योगी चन्द्रनाथ द्वारा अनुवादित) मेंं बताया
गया है
भारत का एक धार्मिक पंथ
है। इसके आराध्य शिव हैं। यह हठ योग की साधना पद्धती पर आधारित पंथ है। इसके
संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं[1]। गोरखनाथ ने इस
सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। भारत में
नाथ संप्रदाय को सन्यासी, योगी, जोगी, उपाध्याय, बाबा, नाथ, अवधूत आदि नामों से जाना जाता है।
हिन्दू-धर्म,
दर्शन, अध्यात्म और साधना के अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों में नाथ
सम्प्रदाय का प्रमुख स्थान है। भारतवर्ष का कोई प्रदेश, अंचल या जनपद नहीं है जिसे नाथसम्प्रदाय के सिद्धों या
योगियों ने अपनी चरण रज से साधना और तत्वज्ञान की महिमा से पवित्र न किया हो। देश
के कोने-कोने में स्थित नाथ सम्प्रदाय के तीर्थ-स्थल, मन्दिर, मठ, आश्रम, दलीचा, खोह, गुफा और टिल्ले इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं
कि नाथ सम्प्रदाय भारतवर्ष का एक अत्यन्त गौरवशाली प्रभविष्णु, क्रान्तिकारी तथा महलों से कुटियों तक फैला
सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाला लोकप्रिय प्रमुख पंथ रहा
है।
नाथ सम्प्रदाय की
उत्पत्ति आदिनाथ भगवान शिव द्वारा मानी जाती है। लोक कल्याण के लिए नव नारायणों ने
नवनाथों, कविनारायण ने श्री
मत्स्येन्द्रनाथ, करभाजननारायण ने
गहनिनाथ, अन्तरिक्षनारायण ने
जालन्धरनाथ, प्रबुद्धनारायण
ने कानीफरनाथ, अविहोर्त्रनारायण
ने नागनाथ, पिप्पलायननारायण ने
चर्पटनाथ, चमसनारायण ने रेवणनाथ,
हरिनारायण ने भर्तृहरिनाथ तथा द्रमिलनारायण ने
गोपीचन्द्र नाथ के नाम से इसे समय-समय पर धराधाम पर फैलाया। आदिनाथ शिव से जो
तत्वज्ञान श्री मत्स्येन्द्रनाथ ने प्राप्त किया था उसे ही शिष्य बनकर शिवावतार
गोरक्षनाथ ने ग्रहण किया तथा नाथपंथ और साधना के प्रतिष्ठापक परमाचार्य के रूप में
प्रसिद्धि प्राप्त की। महाकालयोग शास्त्र में स्वयं शिव ने यही कहा है:
अहमेवास्मि
गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत। योग-मार्ग प्रचाराय मयारूपमिदं धृतम् ।।
अर्थात् मैं ही
गोरक्ष हूँ। उन्हें मेरा ही रूप जानो। योग मार्ग के प्रचार के लिए मैंने ही यह रूप
धारण किया है। इस प्रकार श्री गोरक्षनाथ स्वयं सच्चिदानन्द शिव के साक्षात्स्वरूप
हैं और जैसा कि पाश्चात्यविद्वान जार्ज ग्रियर्सन ने भी कहा है, ‘‘उन्होंने लोकजीवन का पारमार्थिक स्तर
उत्तरोत्तर उन्नत और समृद्ध कर, निष्पक्ष
आध्यात्मिक क्रान्ति का बीजारोपण कर योगकल्पतरु की शीतल छाया में त्रयताप से पीड़ित
मानवता को सुरक्षित कर जो महनीयता प्राप्त की वह उनकी महती अलौकिक सिद्धि की
परिचायिका है।’’ उन्हें चारों
युगों में विद्यमान एक अयोनिज, अमरकाय सिद्ध
महापुरुष माना जाता है जिसने एशिया के विशाल भूखण्ड तिब्बत, मंगोलिया, कान्धार, अफगानिस्तान, नेपाल, सिंघल तथा
सम्पूर्ण भारतवर्श को अपने योग महाज्ञान से कृतार्थ किया। नाथ सम्प्रदाय की
मान्यता के अनुसार गोरखनाथ जी सतयुग में पेशावर (पंजाब) में, त्रेतायुग में गोरखपुर (उ.प्र.) में, द्वापरयुग में हरमुज (द्वारिका से भी आगे) में
तथा कलियुग में गोरखमढ़ी (सौराष्ट्र) में आविर्भूत हुए थे। बंगाल में यह विश्वास
किया जाता है कि गोरखनाथ जी उसी प्रदेश में पैदा हुए थे। परम्परा के अनुसार जिसका
ब्रिग्स ने उल्लेख किया है जब श्रीविष्णु कमल से प्रकट हुए उस समय गोरखनाथ जी
पाताल में तपस्या कर रहे थे। उन्होंने सृष्टिकार्य में श्रीविष्णु की सहायता भी की
थी। जोधपुर नरेश महाराज मानसिंह द्वारा विरचित ‘श्रीनाथतीर्थावली’ के अनुसार प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में कंकण बन्धन
श्री गोरक्षनाथ जी की कृपा से ही हुआ था।
नाथ सम्प्रदाय के
सबसे आदि में नौ मूल नाथ हुये हैं ।
आदिनाथ . ॐ कार
शिव, ज्योति रूप
उदयनाथ पार्वती,
पृथ्वी रूप
सत्यनाथ ब्रम्हा,
जल रूप
संतोष नाथ विष्णु,
तेज रूप
अचल (अचंभे) नाथ
शेषनाग, पृथ्वी भार आरी
क्रंथडिनाथ …
गणपति, आकाश रूप
चौरंगीनाथ
चन्द्रमा, वनस्पति रूप
मत्स्येन्द्रनाथ
(नाश … माया रूप, करुणामय
गोरक्षनाथ
अयोनिशंकर
1. आदिनाथ
नवनाथ स्वरूप पर
क्रमपूर्वक विचार किया जावे तो सर्व प्रथम आदिनाथ के ओ•मकार स्वरूप के संबन्ध मेंं प्रकट होता है कि, सभी धर्मग्रन्थों मेंं सृषिट के प्रारम्भ मेंं
एक स्पन्दन का होना माना गया है।
वेद विज्ञान मेंं शब्द से ही सृषिट का
प्रादुर्भाव माना गया है। र्इसार्इयों के धार्मिक ग्रन्थ बाइबल मेंं भी शब्द के बारे
मेंं कहा गया है कि, श्प्द जीम
इमहपददपदह जीमतमूें जीमूवतकए जीमूवतकूेंूपजी जीम ळवक ंदक जीमूवतकूें जीम ळवकश्ण्
शब्द का गुण ध्वनि है और ध्वनि, इस अनन्त आकाष
मेंं प्रतिपल एक अनवरत स्पन्दन उत्पन्न करती रहती है। ओ•म ही वह शब्द है जिसकी प्रतिध्वनि अनवरत रूप से अखिल
ब्रहमाण्ड मेंं व्याप्त है।
सृषिट का जनक, देवों का देव, समस्त शकितयों का स्वामी, समस्त सृषिट
जिससे सृजित और समाहित है, समस्त महायोगियों
उसी के रूप हैं, जो द्वैत और
अद्वैत से परे होने के कारण आदिनाथ नाम दिया गया प्रतीत होता है।
उल्लेखनीय है कि सदाषिव महेष को आदिनाथ समझने की
भूल करने वाले लोगों के लिये यह महत्वपूर्ण है कि भगवान षिव आदिनाथ नहीं है वरन
ब्रहमा, विष्णू और महेष भी इस
ओंमकार रूप में एकात्म है। ब्रहमा, विष्णु, सदाषिव जानत अविवेका, प्रणव अक्षर के मध्य ये तीनों एका। अविवेकी लोग ब्रहमा,
विष्णू और महेष को पृथक समझते हैं जबकि ये
तीनों प्रणवाक्षर में एकात्म हैं।
योग में षट
चक्रों के वर्णनानुसार जीवधारी के गले में विषुद्ध चक्र का स्थान है जो शुद्ध
अन्तरिक्ष के आकाष रूप से संबद्ध है। विषुद्ध चक्र रूद्र ग्रंथी के निम्न केन्द्र
के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह सहस्त्रारब्रहमरन्ध्रदषम द्वार के साथ
मसितष्क में भ्रुमध्य में सिथत आज्ञा चक्र को स्थापित करता है। यह विषुद्ध चक्र
मानव शरीर के आकाष तत्व का आधार है जो राग, द्वेष, भय, लज्जा और मोह को उत्पन्न करने का उत्तरदायी है।
योगी (मानव) के लिये विषुद्ध चक्र को पार करना केवल आेंमकार में लय (सूर्य और
चन्द्रमा (ह-सूर्च, ठ-चन्द्रमा
अर्थात हठ योग) के योग) अर्थात नितान्त शुद्ध सिथति द्वारा ही संभव है।
इसीलिये इसे विषुद्ध कहा जाता है। आदिनाथ को
ज्योति स्वरूप भी कहा जाता है।
2. उदयनाथ (ऊमा
पार्वती)
क्रम सोपान के
अन्तर से उदयनाथ द्वितीय स्थान पर हैं और यह नाम षिव की भार्या पार्वती को दिया
गया है और सम्पूर्ण पृथ्वी उनका स्वरूप है।
यह समझना आवष्यक है कि, यहां पृथ्वी से तात्पर्य केवल हमारे सौरमण्डल के इस पृथ्वी
ग्रह से नहींं है
वरन अन्तरिक्ष मेंं जितने भी ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, उनका भू-मण्डल षिव भार्या पार्वती का स्वरूप है।
पर्वत की पुत्री
होने के कारण इन्हें पार्वती और जीव को सर्वप्रथम अपने अपनी निजा शकित से उत्पन्न,
पल्लवित और पोषित करने के
कारण इन्हें
दिव्य शकित, महा शकित,
धरती रूपा, माही रूपा, पृथ्वी रूपा,
प्राण नाथ, प्रजा नाथ, उदयनाथ, भूमण्डल आदि कहा गया। पृथ्वी तत्व मूलाधार चक्र
से संबंद्ध है जो गुदा के मध्य सिथत एक वलय है जो अन्य सभी का आधार है।
भौतिक जगत के
सृजन से पूर्व आदि शकित ने अदृष्य वलयों का निर्माण किया जो चक्र कहे जाते हैं।
यह षिव की निजा शकित
(व्यकितगत सामथ्र्य) जो उनसे भिन्न नहीं होकर समस्त सृषिट को प्रकार चलायमान रखती
है कि ये महान दिव्य युगल समस्त दृष्टमान एवं बोधगम्य तत्वों का उत्पादन और भरण
करता है। जहां षिव समस्त चराचर जगत में आत्मतत्व है तो यह शकित उस चराचर जगत का
रूप है। षिव समस्त सृषिट में बीज है तो यह शकित उस बीज को अपने कलेवर में ढांपती
और उसका सरंक्षण करती है। जिस प्रकार एक चेहरा दर्पण में प्रतिबिमिबत होकर दो अथवा
अनेक बिम्बों में दिखार्इ देकर भी एक ही होता है,
उसी प्रकार सृजन के समय माया रचित अनेक कारणों
से बाहय अद्वैत बृहम षिव और उनकी निजा शकित द्वीआयामी और बहुआयामी हो जाती
है।सम्पूर्ण सृष्टी की उत्तरदायी होने के कारण यह निजा शकित देवताओं और असुरों की
जननी है। शाबिदक अर्थ में मूलाधार (मूलचक्र) से आषय मुख्य आधार या षटचक्रों में
प्रथम चक्र है
और गणितीय
व्याख्या अनुसार मूलाधार चक्र सृषिट का वो शून्य बिन्दू है जहां से सात उच्च लोक
और सात पाताल लोक हैं। यहां षिव की निजा शकित के दो रूप है।
पहली जव वह षिव से पृथक होकर सृषिट कर्म के लिये
अधोगति करती है और दूसरी जब वह सृषिट कर्म से प्रत्याहरण होकर सर्वोच्च सातवें
चक्र सहस्त्रार जो कि उसके स्वामी षिव का आसन है, तक ऊपर उठती है जहां, वह पुन: षिव के अद्वेत रूप ओंमकार में समाहित हो जाती है।
उदय का शाबिदक
अर्थ उठना या प्रकट होना है अत: उदयनाथ को उदित होने वाले देवता की संज्ञा दी जा
सकती है। महायोगी गोरक्षनाथ ने इस दिव्य शकित की सुप्त और जागृत दो सिथतियां बतायी
है। सुप्त अवस्था में यह सर्पिणी की भांति मूलाधार चक्र में मेरूदण्ड के आधार में
सिथत रहती है। योग की तकनीक से जब इसे जागृत किया जाता है तो यह सुषुम्णा नाडी में
प्रवेष कर सहस्त्रार चक्र की ओर ऊपर उठती है जो इसका अनितम लक्ष्य है। मूलाधार चक्र
से सहस्त्रार चक्र की यात्रा में प्रत्येक चक्र का भेदन करती हुर्इ यह अपने स्वामी
षिव से संगम करती है। अपनी सुप्त अवस्था में सत, रज और तमस नामक त्रयगुणों की प्रकृति से आवृत और माया के
शकित रूप में प्रकट होती है जिससे सभी भाव असितत्व में आते हैं। यही वह शकित है जो
इस जगत के असाधारण, भौतिक व परा
विज्ञान और असंख्य पदाथोर्ं के असितत्व व वास्तविक बाहरी रूप के लिये उत्तरदायी
है। केवल इसी दिव्य कुण्डलिनी शकित को जागृत किया जाकर ही योगाभ्यास में सफलता
प्राप्त की जा सकती है और योगी पूर्णतया व सदा सर्वदा के लिये योग में आरूढ हो
सकता है। हठयोग प्रदीपिका के तृतीयोपदेष का पहला श्लोक इस कुण्डलिनी के महत्व को
स्थापित करता है तदनुसार
स: शैल वन
धात्रीणां यथाधारोहि नायक:। सर्वेषां योग तन्त्राणां तथाधारो हि कुण्डली।
कुण्डलिनी शकित
को परा शकित (वस्तुत: यह शब्द पारा शकित है। आध्यातिमक शब्दावली में पारा वीर्य का
पर्यायवाची है) भी कहा गया है और इसे जागृत करने के लिये सम्यक ब्रहमचर्य (पारा
अर्थात वीर्य का सरंक्षण) का पालन आवष्यक है। मन, वचन और कर्म से मैथुन का सदा-सर्वदा, सर्वत्र व समस्त स्तरों पर त्याग ब्रहमचर्य है। नाथयोगियो
के सन्दर्भ में ब्रहमचर्य की कि्रयानिवति केवल सम्यक ब्रहमचर्य की सख्ती और
स्वाधिस्ठान चक्र के नियन्त्रण तक सीमित नहीं है, वरन देह के अन्य आठ द्वारो पर भी ब्रहमचर्य का पालन किया
जाता है। पूर्ण ब्रहमचर्य के पालन से ही योगी सत्य लोक अर्थात परं ब्रहम के स्थान
को प्राप्त करता है।
3. सत्यनाथ (ब्रहमा)
तृतीय स्थान पर
सत्यनाथ नाम से ब्रहमा पदस्थापित है, जिनको जलस्वरूप कहा गया है। कहने की आवष्यकता नहींं है कि, सृषिट के समस्त जीवों, चल व अचल पदाथोर्ं के निर्माण मेंं जल एक प्रमुख तत्त्व है।
इन्हें प्रजा (सृष्टी पति) पति भी कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों में ब्रहमा की
उत्पति विष्णू के नाभी कमल से होना सर्वविदित है। जलतत्व स्वाधिष्ठान चक्र से
संबंधित है जो जननेन्द्रीयों के तल में सिथत है और मानव शरीर के स्व का आसन है।
ज्ञान गूदडी नामक गं्रथ के अनुसार ब्रहमा भी सृषिट करने की इच्छा के कारण इस जगत
प्रपंच में अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं। आदि पुरूष इच्छा उपजार्इ, इच्छा साखत निरंजन मामही।। इच्छा ब्रहमा,
विष्णु, महेषा। इच्छा शारदा, गौरी, गणेषा।। इच्छा से
उपजा संसारा। पंच तत्व गुण तीन पसारा।। (ज्ञान गूदडी)
4 सन्तोषनाथ
(विष्णु)
चतुर्थ स्थान पर
सन्तोषनाथ नामान्तर्गत विष्णु विराजित है, जो तेजसिवता लियेे हुए हैं। आज विज्ञान जगत सहित समस्त संसार यह मान चुका है
कि,
हमारे शरीर मेंं एक ज्योतिपुंज है जिसे हम
योगाभ्यास के माध्यम से अपने ही शरीर मेंं देख सकते हैं।
शरीर मेंं इस ज्योतिपुंज की उपसिथति ही जीवन के
असितत्त्व को सिद्ध करती है। सूर्य के साथ ज्योतीअगिन तत्व मणिपुर चक्र से
संबंद्धित है
जो नाभि क्षेत्र में सिथत है। मणिपूर चक्र मानव
देह का विषुद्ध केन्द्र बिन्दु है और इस देह रूपी सौरमण्डल के सूर्य के समान है।
विष्णु सन्तुषिट का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है,
इस सृषिट का
संचालक, सन्तुलनकर्ता होते हुए भी
निर्लिप्त व सन्तुषिट भाव से अपने कर्तव्य का पालन करता है।
शाबिदक अर्थ में
देखा जावे तो सन्तोष भौतिक संसाधनों पर स्वामित्व, महत्वाकांक्षाओं पर विराम और हैसीयत आदि पर वर्तमान क्षण की
सिथति पर एक तटस्थ भाव को इंगित करता है
अर्थात जो है और
जैसा है उसकी स्वीकारोक्ती सन्तोष है। इस अर्थ एक वास्तविक योगी महल और कुटिया में
तटस्थ भाव से समान रहता है।
श्रीमदभगवदगीता में समत्वं योगं उच्यते कहकर
समता को ही योग कहा गया है। सन्तोष र्इष्वर का उपहार है
जिसके प्राप्त होने पर स्थायी शान्ती प्राप्त हो
जाती है। योगीजन इस आन्तरिक शान्ती को प्राप्त होने के कारण बाहरी शान्ती पर
निर्भर नहीं रहते।
महर्षी पातंजली,
कबीर, रहीम आदि अनेक नाम हैं जिन्होंने सन्तोष प्राप्त हो जाने के बाद किसी भी
तृष्णा पूर्ती की आकांक्षा नहीं रहने संबंधी श्लोक, छन्द और कविताएं लिखी हैं
जिन्हें पुन: उदधृत करना हमारा उददेष्य नहीं है।
किन्तु सन्तोष का तात्पर्य अकर्मण्य हो जाना नहीं है वरन कर्मफल में आसक्ती नहीं
रह जाना सन्तोष है।
श्रीमदभगवतगीता के छठे अध्याय का पहला और
अटठारहवें अध्याय का ग्यारहवां श्लोक इस संबंध में विषय को और अधिक स्पष्ट कर देते
हैं। तदनुसार
अनाश्रित:
कर्मफलं कायर्ं कर्म करोति य:।
स सन्यासी च योगी
च न निगिर्नचकि्रय:।। और
न ही देहभृता
शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यषेषत:,
यस्तु
कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।
5. अचल अचम्भनाथ
(विष्णु, शेषनाग अथवा अन्तरिक्ष)
पांचवें स्थान पर
अचम्भनाथ नाम से आकाष तत्त्व का उल्लेख है और इसकी प्रकृति अचल बतायी गयी है। गीता
के दूसरे अध्याय के चौबीसवें श्लोक-
अच्छेधो∙यमदाáो∙यमक्लेधो∙षोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत:
स्थाणूर्चलो∙यं सनातन:।।
के सन्दर्भ मेंं
यह तत्त्व स्थायित्व लियेे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का धोतक है। स्थायी होने के कारण
अमरत्व के समस्त गुण अर्थात अकाटय, अभेध, अषोष्य, अदाहय आदि इसमेंं समाहित हैं।
इन दोनों तत्त्वों पर आगे विचार किया जावे तो ये
सभी तत्त्वगुण एक ही परमसत्ता आत्मा की ओर संकेत करते हैंंं जो, सम्पूर्ण सृष्टी में व्याप्त है। पृथ्वी को
अपने फन पर सिथर और अचल भाव से धारण करने के कारण शेषनाग को भी अचलनाथ कहा जाता है
किन्तु यहां सूर्य और चन्द्र नाडी में लय के द्वारा वायु को सिथरअचमिभत अर्थात अचल
कर देने की कि्रया भी संकेतित हो सकती है। जो भी हो, सम्पूर्ण सृष्टी नित्य गतिमान है केवल वायु से बना (बोलचाल
में अन्तरिक्ष) आकाष ही सिथर और अचल है। यह एक विलक्षण तथ्य है कि वायु भी सिथर
नहीं है और एक निषिचत परिधी के बाद आकाष वायु रहित हो जाता है, संभवत: योग की यही विलक्षणता योगियों का ध्येय
है।
6. गजबेली कन्थड नाथ
(गणेष)
छठे स्थान पर
हाथी को कन्थड़नाथ नाम दिया है। इस सम्बन्ध मेंं कोर्इ बहुत तार्किक तथा सटीक
अनुमान उद्वेलित नहींं होता। हाथी को ही क्यों कन्थड़नाथ का स्वरूप अथवा प्रतीक
बताया गया? इस विषय पर विचार करते
हैंंं तो दो अनुमान प्रकट होते हैं। पहला यह कि आदिनाथ षिव ने हाथी की खाल को अपना
कन्थाकन्थड़ी (अधोवस्त्र) बनाया। बेली का अर्थ साथी तथा गज का अर्थ मर्यादा भी
होता है। संक्षेप मेंं तात्पर्य यह कि नाथ सम्प्रदाय के मनीषियों द्वारा अपने
प्रथम आराध्य षिव द्वारा हाथी के चर्म को यह सम्मान देने के कारण इसे नवनाथों मेंं
समिमलित किया गया होगा। इस अनुमान को स्वीकार करने का यह तर्क अत्यन्त कमजोर है।
इस आधार पर तो षिव द्वारा अपने शरीर पर धारण की गयी समस्त विचित्रताओं को नाथान्त
नाम से इस सूची मेंं लेना होगा। दूसरा अधिक सटीक किन्तु फिर भी विवाद योग्य अनुमान
यह है कि, हाथी सृषिट निर्माण मेंं
प्रयोग किये गये स्थूल तत्त्वों का प्रतीक है। यधपि स्थूलता के दृषिटकोण से देखा
जावे तो किसी अन्य जीव को प्रतीक बताया जा सकता था। किन्तु इस क्रम में गज अथवा
हाथी के सर्वाधिक सम्मानित व प्रचलित नाम गणेष पर विचार किया जावे तो बहुत विलक्षण
तथ्य प्रकाष में आते हैं।
गणेष अर्थात समूह
का नेतृत्व करने वाला जो रिद्धि और सिद्धियों का देने वाला है। गणेष के अन्य नामों
में विघ्नेष अर्थात विघ्न उत्पन्न करने वाला और विघ्नेष्वर अर्थात विघ्न समाप्त
करने वाला प्रस्तुत विषय के सन्दर्भ मे विषेष उल्लेखनीय है। इस प्रकार किसी कार्य
के निर्विघ्न संचालन एवं सफल समापन गणेष की अनुकम्पा पर निर्भर करता है। स्पष्ट है
कि भौतिक समृद्धि रिद्धि और आध्यातिमक शकित सिद्धि गणेष की कृपा से ही संभव है।
योग मार्ग के पथिक को आरंभिक सिथति में ये रिद्धि और सिद्धि उसके मुख्य उददेष्य से
भटकाती है। हिन्दू मतानुसार इनिद्रयों का देवता इन्द्र हमेंषा सन्यासियों को उनके
पथ से विचलित करने का प्रयास करता रहता है जिससे कि जीवों पर हमेंषा उसका
नियन्त्रण बना रहे। वह अपने इन्द्रजाल के माध्यम से योगियों और सन्यासियों को उनकी
साधना को सफल नहीं होने देना चाहता। योगियों की साधना की आरंभिक सफलता में ही योगी
को समृद्धि, शकित और यष
प्राप्त हो जाता है। जो लोग स्वयं को माया (मा¾ नहीं है, या¾ जो अर्थात जो नहीं होकर भी है अथवा जो होकर भी
नहीं है वह माया है) से दूर रखने का प्रयास करते हैं तातिवक रूप से उनकी साधना
असफल होने का अन्देषा रहता है। यही कारण है कि भौतिक सुखों के त्याग और इनिद्रयों
के सुखों पर विजय की अपेक्षा भौतिक सुखों से सन्यास और इनिद्रयों पर नियन्त्रण
प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। माया से भागने की अपेक्षा उससे अप्रभावित रहने
की षिक्षा पर जोर देते हैं। यह निर्विवादित है कि अवसर मिलने पर त्याग’ पुन: भौतिक सुखों की ओर लालायित होगा और जीती
हुर्इ इनिद्रयां पुन: अपने व्यवहार की ओर उन्मुख होगी किन्तु भौतिक सुखों से
सन्यास और माया से अप्रभावित व इनिद्रयों पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाने की सिथति
में यह आषंका नहीं रहती। फिर भी इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि अपनी शकितयों पर
अति विष्वास योगी को पथभ्रष्ट कर सकती है। जिस प्रकर अगिन के बिना भोजन नहीं पकाया
जा सकता उसी प्रकार तप की अगिन के बिना योग को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
नाथयोगियों की इसी परंपरा से महायोगी गोरक्षनाथ को भी अनेक बार महामाया की अगिन
परीक्षा का सामना करना पडा। जो लोग भौतिक सुखों से जुडे रहते हैं वे उनमें लिप्त
होकर भोगी और जो त्याग की आड में जीवन की चुनौतियों और दुष्वारियों से भागते हैं
वे मुकित का मार्ग प्राप्त नहीं कर सकते। जहां बन्धन है मुकित उसी स्थान से हो
सकती है। शान्त और अनुकूल परिसिथतियां एक कच्ची कृपाण की तरह सुरक्षा का सामयिक
भ्रम तो उत्पन्न कर सकती है किन्तु वास्तविक अवसर आने पर उसकी कोर्इ उपादेयता
सिद्ध नहीं हो सकती। माया की परीक्षा से निकले अपने पथ और अनुषासन के पक्के माया
से अप्रभावी रहने वाले योगियों और केवल शान्त व अनुकूल परिसिथतियों में चुनौतियाें
से बचकर रहने वाले त्यागी और जितेन्द्र उपमा वाले साधकों के मध्य यही अन्तर सिथति
है। योगियों के लिये योगारूढ़ होना गणेष (विघ्नेष-विघ्नेष्वर) की कृपा के बिना
संभव नहीं है किन्तु योगी को उस समय सावधान रहने की आवष्यकता है जब योग के मार्ग
में रिद्धि एवं सिद्धियां अनायास ही प्राप्त होने लगती है जिससे कि वह माया के
अधीन होकर पुन: माया क्रीडा में उलझ कर न रह जावे।
शास्त्रों के
अनुसार महादेव द्वारा शीष विच्छेद के बाद गणेष को इन्द्र के ऐरावत हाथी का शीष
काटकर लगाया गया जो सामूहिक रूप से इनिद्रयों की अविभक्त शकित व संपतियों का
प्रतीक है। गणेष के दो हाथों में पाष (पशुओं के गले में डाला जाने वाला फन्दा) और
अंकुष है जिनका सांकेतिक अर्थ है। पाष जीव के त्रिआयामी बन्धन अण्व, कर्म और माया का प्रतिनिधित्व करता है। पाष वह
शकित है जिससे स्वामी अपने पशुओं (यहां तात्पर्य जीव से है) को गन्तव्य की ओर ले
जाता है और आवष्यकता पडने पर अंकुष का प्रयोग करता है।
7 चौरंगी नाथ
(चन्द्रमा)
सातवें स्थान पर
वनस्पतियों के जीवनदाता चन्द्रमा को चौरंगीनाथ नाम दिया है। शाबिदक अर्थ के
सन्दर्भ में चौरंगीनाथ एक अंगविहीन पुरूष किन्तु पूर्ण ज्ञान का प्रतीक है। नाथ
सम्प्रदाय में चन्द्रमा भ्रूमध्य में सिथत आज्ञा चक्र से संबंधित है और तीसरे
नेत्र के रूप में भी जाना जाता है। नाथ साहित्य और साधना के सन्दर्भ से देखें तो
आज्ञा चक्र (भ्रूमध्य) ही वह स्थान है जहां से निरन्तर अमृत निसृत होकर सूर्य
(स्वाधिष्ठान चक्र) में गिर कर नष्ट हो रहा है। इसी अमृत को नष्ट होने से बचाना
योगियों और हठयोग (सूर्य और चन्द्रमा की युति) का ध्येय है जो स्वाधिष्ठान चक्र और
आज्ञा चक्र को नियनित्रत किया जाकर संभव है। जब कुण्डलिनी शकित जागृत होकर
सुषुम्णा मार्ग में प्रवृत होती है तो शरीर विदेह अवस्था (वह अवस्था जिसमें शरीर
के अंग व इनिद्रयां इस प्रकार अन्तर्मुखी होकर निष्चेष्ट हो जाती है जैसे कि उनका
असितत्व ही न हो) को प्राप्त होकर विषुद्ध रूप से केवल मसितष्क चेतन रहता है।
नवनाथों की सूचियों में कहीं-कहीं चौरंगीनाथ को कूर्मनाथ भी अंकित किया गया है जो
श्रीमदभगवदगीता के दूसरे अध्याय के 58वें श्लोक में चर्चित व उपदेषित कूर्म युकित को प्रतिबिमिबत करता है। तदनुसार
यदा संहरते चायं कूर्मो∙ंगानीव सर्वष:,
इनिद्रयाणीन्द्रयार्थे प्रज्ञा प्रतिषिठता।।
अर्थात जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है उसी भांति जो पुरूष
अपनी इनिद्रयों को इनिद्रयविषयों से हटा लेता है, उसकी बुद्धि सिथर है।
आज्ञा चक्र
(चन्द्र स्थान) से निसृत होने वाले अमृत (सोमरस) के प्रसंग में हठयोग प्रदीपिका के
तीसरे अध्याय का 45वां और 46वां श्लोक उल्लेखनीय है। तदनुसार नित्यं
सोम-कला-पूर्णं शरीरं यस्य योगिन:, तक्ष्हकेणापि
दष्टस्य विषं तस्य न सर्पति।। और इन्धनानि यथा वहनिस्तैल-वर्ती छ दीपक: तथा
सोम-कला-पूर्णं देही देहं ना मुनछति। अर्थात जिस योगी का शरीर सोमरस (आज्ञाचक्र से
निसृत होने वाला अमृत) से पूर्ण है उसका शरीर तक्षक नाग के विष से भी अप्रभावित
रहता है। इसी प्रकार जैसे तेल और बाती से पूर्ण दीपक में ज्योती बनी रहती है वैसे
ही सोमरस से पूर्ण देह (शरीर) को देही (शरीरी) नहीं त्यागता। ज्ञातव्य है कि
आध्यातिमक साहित्य एवं योगियों द्वारा बताये अनुसार जीव के मसितष्क में सहस्त्रदल
वाले अधोमुखी कमल सहस्त्रार चक्र में सोम (चन्द्रमा) का स्थान है जिसको पीने वाला
नित्य-प्रति की आवष्यकताओं से मुक्त हो जाता है।
8. मत्स्येन्द्रनाथ
(मायारूप)
नवनाथों मेंं
सबसे अधिक चर्चित नाम मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ है। मत्स्येन्द्रनाथ को माया
स्वरूप कहा गया है। संस्कृत मेंं मा का अर्थ नहींं है तथा या का अर्थ है जो।
अर्थात जो नहींं है किन्तु फिर भी है और इसके उलटक्रम से जो है किन्तु फिर भी
नहींं है, वह माया है।
मत्स्येन्द्रनाथ को दादागुरू कहा जाता है और जिस प्रकार परिवार में पितामह को अपने
प्रपौत्रों से स्नेह व अनुराग होता है मत्स्येन्द्रनाथ को भी अपने पुत्र (षिष्य)
महायोगी गोरक्षनाथ के पुत्रों (षिष्यों) से अनुराग है और परिवार में पितामह का
अपने प्रपौत्रों की त्रुटियों को क्षमा करने की स्वाभाविक प्रवृति वाला होने से
मत्स्येन्द्रनाथ को कृपालु भी कहा जाता है। निसन्देह सीखने की किसी भी पद्धति और
प्रकि्रया में षिक्षार्थी से त्रुटी होना संभव है, नाथ सम्प्रदाय के दादा गुरू मत्स्येन्द्रनाथ कृपापूर्वक उन
त्रुटियों को क्षमा कर देते हैं। नाथयोगियों की मान्यता अनुसार जीवन षिव और उसकी
निजाषकित का खेल है और सम्पूर्ण चराचर जगत का प्रपंच षिव द्वारा स्थापित विधि के
अनुरूप ही होता है। यदि जीव इस सत्य को पहचानने में असफल होता है तो यह उसके स्वयं
के विवेक और दृषिट की असमर्थता है और गुरू हमारे ज्ञान चक्षुओं को इस सत्य को
पहचानने में समर्थ बनाता है। जीव जब दूसरों पर दोषारोपण की प्रवृति को छोडकर स्वयं
के कर्मों के उत्तरदायित्व को स्वीकार करना प्रारंभ करता है तो जीवन का प्रत्येक
क्षण स्वयं षिक्षक बन जाता है। स्वयं षिक्षा की यह प्रकि्रया अनुषासित (अनुभव
द्वारा शासित) जीव को जीवन भर त्रुटि रहित षिक्षा देती है जिससे योगी में विष्वास,
विनम्रता एवं विषुद्ध व्यवहार के गुणों का
स्थायी वास हो जाता है और तब कुण्डलिनी शकित जागृत होकर निरन्तर, निर्बाध व नि:षेष रूप से सुषुम्णा नाडी में गमन
करती है।
शरीर मेंं जीव
(आत्मा (विष्णु) का पुत्र) मत्स्येन्द्रनाथ का प्रतीक है, जो मछली के समान चंचल इनिद्रयों वाला है। यह जीव शरीर के
सम्पूर्ण भागों मेंं विचरण करता है। वासना से संबद्ध होने के कारण अपनी रुचि के
विषय से साक्षातकार होने पर वह अपने मूल स्वरूप को भूल जाता है और आनन्दरत रहते
हुए संयम को अस्वीकार करने लगता है। वासनाओं के इस जाल मेंं उलझे हुए
मत्स्येन्द्रनाथ अर्थात जीव को गोरक्षनाथ अर्थात इनिद्रयनिग्रही विचार से ही मुकित
मिलती है। घट अर्थात शरीर और पिण्ड अर्थात शरीरस्थ समस्त तत्त्वों की नित्य और
निरन्तर रक्षा करने के कारण गोरक्षनाथ अर्थात इनिद्रयनिग्रही विचार का नाम
शम्भुयति कहा जाकर उन्हें बाल स्वरूप कहा गया है।
9 गोरक्षनाथ (बाल रूप)
महायोगी
गोरक्षनाथ को षिव का अवतार मानते हैं और षिवस्वरूप मानने के कारण ही षिवगोरक्ष की
संज्ञा से उच्चारित करते हैं। यधपि आदिनाथ सृष्टी के प्रथम देव हैं किन्तु
गोरक्षनाथ ने योगाभ्यास द्वारा स्वयं को उससे एकात्म कर लिया और इस प्रकार
गोरक्षनाथ व आदिनाथ भिन्न नहीं है। गोरक्षनाथ नवनाथों में सर्वोपरि है और पवित्रता
में आदिनाथ से अभिन्न होते हुए सृष्टी संचालन के लिये विभिन्न काल एवं भूखण्डों
में प्रकट होते हैं। महायोगी गोरक्षनाथ का विषद वर्णन (हमारे ज्ञान की सीमा के
अनुसार) तो पृथक से अगले अध्याय में करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत प्रसंग में
नवनाथों के स्वरूप को समझने के प्रयत्न में उनके बालरूप से मिलने वाला संकेत हमारा
लक्ष्य है। गोरक्षनाथ को एक बालक की भांति निष्कपट, निष्पाप और निर्मल होने से पार्वती का ऐसा पुत्र भी कहा
जाता है जो सृष्टी के नियमों से परे अद्वैत है और सभी देव, दानव, नर, किन्नर, यक्ष, गन्धर्व, नाग, वानर, जलन्द, परन्द, चर, अचर, उभयचर आदि जीवों के नैसर्गिक गुण मैथुन से
नितान्त नि:षेष होने के कारण जती (यती अर्थात जगत प्रपंच से अनासक्त) है। यती एक
बालक की वो अवस्था है जहां उसे अपनी नग्नता का कोर्इ आभास भी नहीं है। महायोगी
गोरक्षनाथ अयोनिज (जिसकी उत्पति मैथुन जनित परिणाम न हो) है किन्तु सूर्य और
चन्द्रमा की युति का माध्यम होकर भी वह उससे अप्रभावित ही रहता है। षिव ही कि तरह
महायोगी गोरक्षनाथ के भी तीन नेत्र हैं। बायां नेत्र चन्द्रमा, दाहीना नेत्र सूर्य और भ्रूमध्य में ज्ञानचक्षु
है जिसे षिव नेत्र भी कहा जाता है। प्रथम देव आदिनाथ के सदृष्य होने से महायोगी
गोरक्षनाथ को स्वयं ज्योतिस्वरूप (जो स्वयं की ज्योती से प्रकाषित है) भी कहा जाता
है। षिव से एकात्म हो चुका योगी जब स्वयं में, सर्वत्र और समस्त तत्वों में षिव का ही प्रतिबिम्ब देखता है
तो अद्वैत हो चुके योगी के लिये कुछ भी धृणित और भयकारक नहीं रह जाता क्योंकि उसे
सब में स्वयं का ही आभास होने लगता है। श्रीमदभगदगीता में श्रीकृष्ण ने छठे अध्याय
के 30वें श्लोक में यो मां
पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति, तस्याहं न प्रणष्यामि स च मे न प्रणष्यति।। कह कर इस अद्वैत दर्षन को समझाया
है तो नाथयोगियों द्वारा घट-घट वासी, गोरक्ष अविनाषी, टले काल मिटे
चौरासी।। कह कर गोरक्ष (षिव) के सर्वत्र व सभी में व्याप्त होने की अवधारणा की
जाती है।
नवनाथों के
स्वरूप चिन्तन में आदिनाथ के ओंमकार स्वरूप से लेकर गोरक्षनाथ के बाल स्वरूप तक
जीव की उत्पती से उसके पूर्ण विकास पर्यन्त जिन नौ सिथतियों का प्राकटय होता है वह
विलक्षण है। सभी जीवों व तत्वों की उत्पती ओंमकार स्वरूप (आदिनाथ) से, प्राकटय धरती स्वरूप (उदयनाथ) से, पोषण जल स्वरूप (ब्रहमा) से, स्थायित्व तेजस्वरूप (सन्तोषनाथ विष्णु) से,
जीवन की सार्वभौम एवं सर्वकालिक सत्ता आकाष
स्वरूप (अचलनाथ) से, जीवन यापन के
समस्त साधन व सामथ्र्य गणेष स्वरूप (गजबेली गज कन्थडनाथ) से, ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ती चौरंगीनाथ से,
विभिन्न विषयों में प्रयोग मायारूपी
(मत्स्येन्द्रनाथ) से और उक्त सभी कि्रयाकलापों सहित सत्य तत्व का मार्ग प्रषस्त
करने वाला इन्द्रीयनिग्रही विवेक बालस्वरूप (षम्भूयती गोरक्षनाथ) से प्राप्त होता
है।
पूर्ववर्ती
पंकितयों में हमने जीव की देह के बाहरी विकास एवं जगत प्रपंच के दृषिटकोण से विचार
करने का प्रयास किया। यदि देह के भीतर ही इन नवनाथों की सिथति का दर्षन करें तो भी
इसी प्रकार की विलक्षणता का अनुभव होता है। योगवेत्ताओं के अनुसार जब कुण्डलिनी
जागृत हो जाती है तो शरीस्थ मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र,
अनाहत चक्र, विषुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र, को भेदती हुर्इ
सहस्त्रार चक्र में पहुंचती है। जीव के शरीर में ये सात चक्र कहीं दादा गुरू
मत्स्येन्द्रनाथ और महायोगी गोरक्षनाथ से इतर शेष सात नाथों के स्थान तो नहीं?
यदि यत पिण्डे तत ब्रहमाण्डे की अवधारणा के
दृषिटकोण से देखा जावेे तो मानव शरीर में मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र,
विषुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्त्रार चक्र क्रमष: उदयनाथ, सत्यनाथ, सन्तोषनाथ, अचलनाथ, गजबेली कन्थडनाथ, चौरंगीनाथ और आदिनाथ के स्थान हैं और वृहद रूप में जिस
प्रकार सृषिट को संचालित करते हैं उसी प्रकार सूक्ष्म रूप में जीव के नियन्ता हैं।
मत्स्येन्द्रनाथ शरीस्थ सिथतियों, सिथतियों के
प्रति हमारी पृवृति और व्यवहार तथा गोरक्षनाथ उक्त सभी द्वारा संचालित की जाने
वाली इनिद्रयों को नियन्त्रक होकर भी उन इनिद्रयों के कि्रयाकलापों से निर्लिप्त
विवेक शक्ती है। श्रीमदभगवतगीता के पांचवें अध्याय के सातवें श्लोक अनुसार योग की
शाष्वत सिथति को प्राप्त योगी जिसका अन्त:करण पूर्णतया शुद्ध हो गया है, जिसकी दृषिट समस्त तत्वों में अपनी छवि देखती
है वह प्रकटत: कि्रया करते हुए भी अपने कमोर्ं से नहीं बन्धता। योगयुक्तो
विषुद्धात्मा विजितात्मा जितेनिद्रय:, सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।नवनाथों के स्वरूप के संबंध में
विचार और चिन्तन करते हुए अनेक अनुमान उद्वेलित हुए हैं। शरीर में किसी भौतिक अंग
की भांति नहीं होने पर भी चक्रों के सिथतिक्रम और उनकी ऊर्जा से नवनाथों को संबद्ध
करते हुए एक ऐसा वैज्ञानिक सत्य प्रकट होता है जिसके लिये शोध किया जाकर एक पृथक
ग्रन्थ लिखा जा सकता है। फिलहाल महायोगी गोरक्षनाथ के संबंध में गोरक्षनाथ नामक
अगले अध्याय में विस्तृत चर्चा करेंगें।
नवनाथों के साथ
चौरासी की संख्या ही अज्ञात समय से न केवल नाथ और बौद्ध पंरपरा वरन सभी धार्मिक
समूहों में बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। विभिन्न स्त्रोतों में चौरासी सिद्ध, चौरासी लाख योनियां, चौरासी लाख आसन जिनमें से वे चौरासी आसन प्रमुख हैं जो
प्रत्येक एक लाख आसन का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इस प्रकार चौरासी की संख्या का
असितत्व अकस्मात अथवा संयोग से नहीं होकर अवष्य ही किसी अदृष्य तर्क किसी अज्ञात
सिद्धान्त अथवा विधि से संबद्ध होना चाहिये। कल्पना किसी अनुमान को उद्वेलित नहीं
करती।
नाथयोगियों की
षिक्षाओं को गहनता से समझने का प्रयास करने वाले को शीघ्र ही नाथयोगियों द्वारा
पूजित नवनाथ चौरासी सिद्धों से परिचित होना आवष्यक हो जाता है। सभी ग्रन्थों में
इन नाथयोगियों की संख्या अनुषासनिक रूप से नौ एवं चौरासी है किन्तु जब यह जानने का
प्रयास किया जाता है कि यह संख्या नौ और चौरासी ही क्यों है, ये नवनाथ और चौरासी सिद्ध कौन हैं और उनका जीवन
परिचय क्या है? तो कोर्इ
सन्तोषप्रद उत्तर प्राप्त नहीं होता वरन अनेक विरोधाभाषी विचार और कहानियां प्रकट
होती है जिनसे इस बारे में कोर्इ सटीक अनुमान लगाया जा सकना या निष्कर्ष निकाल
पाना संभव नहीं होता। यह पहेली आज तक अनसुलझी होकर शोधकर्ताओं के लिये इस
सम्प्रदाय को समझ पाना एक मुषिकल कार्य बना हुआ है। फिर भी हमें याद रखना होगा कि
विष्व में अनेक ऐसे रहस्य हैं जिनका कोर्इ तार्किक, सहज और बोधगम्य स्पष्टीकरण नहीं है किन्तु वे निरर्थक नहीं
है। कहीं कोर्इ कडी टूट गयी है और हो सकता है इन रहस्यों के वे अदृष्य और आन्तरिक
तार्किक सिद्धान्त हम आधुनिक मानवों की समझ में नहीं आये हों जो सतही रूप से
दृष्यमान नहीं है। षिव द्वारा पार्वती को अमरकथा बताये जाने के सन्दर्भ में
नाथयोगियों की षिक्षा व कि्रयाकलापों की प्रकृति गहन एवं अत्यधिक गोपनीय है और
केवल पूर्णरूपेण दीक्षित योगी द्वारा अपनी अन्तदर्ृष्टी एवं अनुभव से ही इन्हें
जाना जा सकता है। भौतिक जगत के सदृष्य ही आध्यातिमक जगत के भी सर्वकालिक नियम हैं
जो किसी पंथ या धर्म पर आश्रित नहीं है। चूंकि धर्म की अवधारणा मानव द्वारा सृजित
है जो सामयिक तौर पर सांस्कृतिक परंपराओं पर आधारित है जबकि आध्यातिमक नियम सनातन
है। नौ और चौरासी की संख्या के गणितीय स्पष्टीकरण पर विचार करें तो 12 राषियों और 7 ग्रहों का गुणनफल 84 आता है। (हालांकि हिन्दू मान्यता अनुसार राहू और केतु
(छाया ग्रहों) को भी मुख्य ग्रहों में शामिल किया गया है तदनुसार 9 ग्रहों और 12 राषियों की अवधारणा से यह संख्या 108 होती है)। भारतीय सन्दर्भ के अतिरिक्त 9 और 84 की संख्याओं को विष्व की प्राचीनतम सभ्यता मिश्र, बार्इबल की कथाओं और नाथ संप्रदाय के सहमार्गी बौद्ध मत के
साथ अध्ययन करें तो बहुत अधिक विस्मयकारी तथ्य प्रकट होते हैं।
यह आष्चर्यजनक
किन्तु सत्य है कि ये 9 एवं 84 की दो रहस्यमयी संख्याएं मिश्र की धरती से आयी
हैं जहां ये दोनों संख्याएं मिश्र के पिरामिडों के रूप में एक साथ प्रयोग की गयी
हैं। मिश्र के पिरामिडों को उन बीजभूत टीलों का प्रतिनिधी माना जाता है जिनसे
पृथ्वी की उत्पतित हुर्इ है। पिरामिडों के निर्माण की संख्या के योग का परीक्षण
करते हैं तो 84 की सख्यां
वास्तव में चमत्कृत करती है। इसी प्रकार सृष्टी रचना संबंधी विभिन्न ग्रन्थों में
भी मिश्र के पिरामिडों की त्रिआयामी संख्या 1-3-5-7 प्रकट होती है। सृष्टी रचना संबंधी मिश्र की प्राचीनतम
किंवदन्ती अनुसार जब प्रथम देवता (आदिनाथ) प्रकट हुआ तो उसे सिथत होने के लिये
कोर्इ स्थान नहीं था। उसके अवस्थान के लिये ये टीला (ठमद.इमद) प्रकट हुआ जो कि
प्राय: सूर्य उपासना के निमित्त होने का भ्रम उत्पन्न करता है। सृष्टी निर्माण
संबंधी मिश्र के ग्रंथों के अनुसार सृषिट का आविर्भाव सृषिट के देवता नवनाथों के
रूप में हुआ जिनका एक अघिष्ठाता देव आदिनाथ है। अब स्थान के अनुसार उन नौ देवताओं
और उस अधिष्ठार्इ देव के नाम में अन्तर हो सकता है। यह विवाद का विषय भी नहीं है।
नाथयोगियों द्वारा उन नौ देवों को ही नवनाथ कहा जाता है जो प्रथम देव (आदिनाथ) को
मध्य में स्थापित करने के लिये आठ दिषाओं में प्रकट हुए। इससे पूर्व कुच्छ भी नहीं
था किन्तु इन नौ देवों (क्योंकि मिश्र के सन्दर्भ में चर्चा की जा रही है अत: यहां
नवनाथ पद के स्थान पर नौ देव पद का प्रयोग कर रहे हैं) के प्रकट होते ही समस्त
सृषिट अपनी पूर्ण पेचीदगियों सहित प्रकट हो गया। यह धारणा नाथयोगियों की षिक्षाओं
व मान्यताओं के इतने निकट है कि दोनों के मध्य कोर्इ अन्तर ही नहीं रह जाता। यदि
सूर्य और चन्द्र गतिमान हैं तो सृषिट अवष्यंभावी है और यदि निर्माण को विराम देना
है तो इन दोनों को आराम दिये जाने की आवष्यकता है।
इस स्थान पर तीन
चित्र दिये गये हैं किन्तु वे वेब पर प्रकट नहीं हो रहे।
पिरामिडों के
सर्वोच्च षिखर (ठमद.इमद) की अवधारणा और षिवलिंग में समानता दृष्टव्य और विचारणीय
है।
नव-नाथ-चरित
।।दोहा।।
'आदि-नाथ' आकाश-सम, सूक्ष्म रुप ॐकार ।
तीन लोक में हो
रहा, आपनि जय-जय-कार ।।१
।।चौपाई।
जय-जय-जय
कैलाश-निवासी, यो-भूमि
उतर-खण्ड-वासी ।
शीश जटा सु-भुजंग
विराजै, कानन कुण्डल सुन्दर साजे
।।२
डिमक-डिमक-डिम
डमरु बाजे, ताल मृदंग मधुर ध्वनि
गाजे ।
ताण्डव नृत्य
किया शिव जब ही, चौदह सूत्र प्रकट
भे तब ही ।।३
शब्द-शास्त्र का
किया प्रकाशा, योग-युक्ति राखे
निज पासा ।
भेद तुम्हारा
सबसे न्यारा, जाने कोई
जानन-हारा ।।४
योगी-जन तुमको
अति प्यारे, जरा-मरण के कष्ट
निवारे ।
योग प्रकट करने
के कारण, 'गोरक्ष' स्वरुप किया धारण ।।५
ब्रह्म-विष्णु को
योग बताया, नारद ने निज शीश नवाया ।
कहाँ तलक कर
वरनूँ गाथा, आदि-अनादि हो
आदि-नाथा ।।६
।।दोहा।।
'उदय-नाथ' तुम पार्वती, प्राण-नाथ भी आप ।
धरती-रुप
सु-जानिए, मिटे त्रिविध भव-ताप ।।७
।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'उदय'-मातृ भवानि, करो कृपा निज
बालक जानी ।
पृथ्वी-रुप क्षमा
तुम करती, दुर्गा-रुप असुर-भय हरती
।।८
आदि-शक्ति का रुप
तुम्हारा, जानत जीव चराचर सारा ।
अन्नपूर्णा बन के
जग पाला, धन्यो रुप सुन्दरी बाला
।।९
ब्रह्मा-विष्णु
भी शीश नमाएँ, नारद-शारद मिल
गुण गाएँ ।
योग-युक्ति में
तुम सहकारी, तुझे सदा पूजें
नर-नारी ।।१०
योगी-जन पर कृपा
तुम्हारी, भक्त-भीड़-भय-भञ्जन-हारी
।
मैं बालक तुम
मातृ हमारी, भव-सागर से
तुरतहिं तारी ।।११
कृपा करो मो पर
महरानी, तुम सम न कोइ दूसर दानी ।
पाठ करै जो ये
चित लाई, 'उदय-नाथ' जी होंइ सहाई ।।१२
।।दोहा।।
'सत्य-नाथ'
हैं सृष्टि-पति, जिनका है जल-रुप ।
नमन करत हैं आपको,
स-चराचर के भूप ।।१३
।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'सत्य-नाथ' कृपाला, दया करो हे
दीन-दयाला ।
करके कृपा यह
सृष्टि रचाई, भाँति-भाँति की
वस्तु बनाई ।।१४
चार वेद का किया
उचारा, ऋषि-मुनि मिल के किया
विचारा ।
सनत्
सनन्दन-सनत्कुमारा, नारद-शारद
गुण-भण्डारा ।।१५
जग हित सबको
प्रकटित कीन्हा, उत्तम ज्ञान
योगी-पद दीन्हा ।
पाताले भुवनेश्वर
सुन्दर, सत्य-धाम-पथ धाम मनोहर
।।१६
कुरु-क्षेत्रे
पृथूदक सुन्दर, 'सत्य-नाथ'
योगी कहलाए ।
आपन महिमा अगम
अपारा, जानत है त्रिभुवन सारा
।।१७'
आशा-तृष्णा निकट
न आए, माया-ममता दूर नसाए ।
'सत्य-नाथ'
का जो गुण गाएँ, निश्चय उनका दर्शन पाएँ ।।१८
।।दोहा।।
विष्णु तो 'सन्तोष-नाथ', खाँड़ा खड्ग-स्वरुप ।
राज-सम दिव्य तेज
है, तीन लोक का भूप ।।१९
।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री
स्वर्ग-निवासी, करो कृपा मिटे
काम फाँसी ।
सुन्दर रुपे
विष्णु-तन धारे, स-चराचर के पालन
हारे ।।२०
सब देवन में नाम
तुम्हारा, जग-कल्याण-हित लेत अवतारा
।
जग-पालन का काम
तुम्हारा, भीड़ पड़े सब देव उबारा
।।२१
योग-युक्ति 'गोरक्ष' से लीन्ही, शिव प्रसन्न हो
दीक्षा दीन्ही ।
शंख-चक्र-गदा-पद्म-धारी,
कान में कुण्डल शुभ-कारी ।।२२
शेषनाग की सेज
बिछाई, निज भक्तन के होत सहाई ।
ऋषि-मुनि-जन के
काज सँचारे, अधम दुष्ट पापी
भी तारे ।।२३
देवासुर-संग्राम
छिड़ाए, मार असुर-दल मार भगाए ।
'सन्तोष-नाथ'
की कृपा पाएँ, जो चित लाय पाठ यह गाएँ ।।२४
।।दोहा।।
शेष रुप है आपका,
अचल 'अचम्भेनाथ' ।
आदि-नाथ के आप
प्रिय, सदा रहें उन साथ ।।२५
।।चौपाई।।
जय-जय-जय योगी
अचलेश्वर, सकल सृष्टि धारे शिव ऊपर
।
अकथ अथाह आपकी
शक्ति, जानो पावन योग की युक्ति
।।२६
शब्द-शास्त्र के
आप नियन्ता, शेषनाग तुम हो
भगवन्ता ।
बाल यती है रुप
तुम्हारा, निद्रा जीत क्षुधा को
मारा ।।२७
नाम तुम्हारा बाल
गुन्हाई, टिल्ला शिवपुरी धाम सुहाई
।
सागर मथन की हुइ
तैयारी, देव दैत्यकी सेना भारी
।।२८
पर-दुख-भञ्जन
पर-हित काजा, नेति आप भये
सिद्ध राजा ।
सागर मथा अमृत
प्रकटाया, सब देवन को अमर बनाया
।।२९
यतियों में भी
नाम तुम्हारा, योगियों में
सिद्ध-पद धारा ।
नित ही
बाल-स्वरुप सुहाए, अचल अचम्भेनाथ
कहाए ।।३०
।।दोहा।।
'गज-बलि' गज के रुप हैं, गण-पति 'कन्थभ-नाथ'
।
वों में हैं
अग्र-तम, सब ही जोड़ें हाथ ।।३१
।।चौपाई।।
जय-जय-जय
श्रीकन्थभ देवा, हो कृपा मैं करूँ
नित सेवा ।
मोदक हैं अति
तुमको प्यारे, मूषक-वाहन परम
सुखारे ।।३२
पहले पूजा करे तुम्हारी,
काज होंय शुभ मंगल-कारी ।
कीन्हि परीक्षा
जब त्रिपुरारी, देखि चतुरता भये
सुखारी ।।३३
ऋद्धि-सिद्धि
चरणों की दासी, आप सदा रहते
वन-वासी ।
जग हित योगी-भेष
बनाये, कन्थभ नाथ सु-नाम धराये
।।३४
कन्थ कोट में आसन
कीन्हा, चमत्कार राजा को दीन्हा ।
सात बार तो कोट
गिराए, बड़े-बड़े भूपनहिं नमाये
।।३५
वसुनाथ पर कृपा
तुम्हारी, करी तपस्या कूप में भारी
।
भैक कापड़ी शिष्य
तुम्हारे, करो कृपा हर विघ्न हमारे
।।३६
।।दोहा।।
ज्ञान-पारखी
सिद्ध हैं, चन्द्र चौरंगि नाथ ।
जिनका वन-पति रुप
है, उन्हें नमाऊँ माथ ।।३७
।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री
सिद्ध चौरंगी, योगिन के तुम नित
हो संगी ।
शीतल रुप चन्द्र
अवतारा, सदा बरसो अमृत की धारा
।।३८
वनस्पति में अंश
तुम्हारे, औषधि के सुख भये सुखारे ।
शालिवान है वंश
तुम्हारा, बालपने योगी तन धारा ।।३९
अति सुन्दर तव
सुन्दरताई, सुन्दरि रानी देख सुभाई ।
गुरु-शरण में
रानी आई, हाथ जोड़ यह विनय सुनाई
।।४०
शिष्य आपका मुझे
चाहिए, नहीं तो प्राण तन में
बहिए ।
सुनकर गुरु जी
करुणा कीन्हीं, जब तुझे यही
आज्ञा दीन्हीं ।।४१
रानी संग चले मति
पाई, जाय महल में ध्यान लगाई ।
रानी ने तब शीश
नमाया, हुए अदृश्य भेद नहीं पाया
।।४२
।।दोहा।।
माया-रुपी आप हैं,
दादा मछन्द्रनाथ ।
रखूँ चरण में
आपके, करो कृपा मम नाथ ।।४३
।।चौपाई।।
जय-जय-जय अलख
दया-सागर, मत्स्य में प्रकट जय
करुणाकर ।
अमर कथा श्री
शिवहिं सुनाई, गौरी के जो मन को
भाई ।।४४
सूक्ष्म वेद जो
शिवहि सुनाया, गर्भ में आपने वह
पाया ।
जाकर अपना शीश
नवाया, उमा महेश सु-वचन सुनाया
।।४५
जीव जगत का कर
कल्याणा, ले आशीष चले भगवाना ।
सिंहल द्वीप
सु-राज चलाया, सारे जग में यश
फैलाया ।।४६
कदली-वन में किया
निवासा, योग-मार्ग का किया
प्रकाशा ।
माया-रुपहि आप
सुहाएँ, जग को अन-धन-वस्त्र
पुराएँ ।।४७
दादा पद है आपन
सुन्दर, करें कृपा निज भक्त जानकर
।
महिमा आपकी महा
भारी, कहि न सके मति मन्द हमारी
।।४८
।।दोहा।।
शिव गोरक्ष
शिव-रुप हैं, घट-घट जिनका वास
।
ज्योति-रुप में
आपने, किया योग प्रकाश ।।४९
।।चौपाई।।
जय-जय-जय गोरक्ष
गुरुज्ञानी, तोग-क्रिया के
तुम हो स्वामी ।
बालरुप लघु जटा
विराजै, भाल चन्द्रमा भस्म तन
साजै ।।५०
शिवयोगी अवधूत
निरञ्जन, सुर-नर-मुनि सब करते
वन्दन ।
चारों युग के
आपहि योगी, अजर अमर सुधा-रस भोगी
।।५१
योग-मार्ग का
किया प्रचारा, जीव असंख्य अभय
कर जारा ।
राजा कोटि निभाने
आए, देकर योग सब शिष्य बनाए
।।५२
तुम शिव गोरख राज
अविनाशी, गोरक्षक उत्तरापथ-वासी ।
विश्व-व्यापक योग
तुम्हारा, 'नाथ-पन्थ' शिव-मार्ग उदारा ।।५३
शिव गोरक्ष के
शरण जो आएँ, होय अभय अमर-पद
पाएँ ।
जो गोरख का ध्यान
लगाएँ, जरा-मरण नहिं उसे सताएँ
।।५४
।।दोहा।।
माला यह नव-नाथ
की, कण्ठ करे जो कोइ ।
कृपा होय नव-नाथ
की, आवागमन न होइ ।।५५
नव-नाथ-माला
सु-रची, तुच्छ मती अनुसार ।
त्रुटि क्षमा
करें योगि-जन, कर लेना स्वीकार
।।५६
नहिं विद्या में
निपुण हूँ, नहिं है ज्ञान विशेष ।
योगी-जन
गुरु-पूजा को, करता हूँ आदेश
।।५७
नाथ- आदर्श
गोरखनाथ द्वारा
प्रवर्तित योगी-सम्प्रदाय सामान्यतः ‘नाथ-योगी’, ‘सिद्ध-योगी’,
‘दरसनी योगी’ या ‘कनफटा योगी’
के नाम से प्रसिद्ध है। ये सभी नाम साभिप्राय
हैं। योगी का लक्ष्य नाथ अर्थात् स्वामी होना है। प्रकृति के ऊपर पूर्ण स्वामित्व
स्थापित करने के लिये योगी को अनिवार्यतः नैतिक, शारीरिक बौद्धिक एवं आध्यात्मिक अनुशासन की क्रमिक विधि का
पालन करना पड़ता है। प्रकृति के ऊपर स्थापित स्वामित्व चेतना एवं पदार्थ दोनों
दृष्टियों से होना चाहिये, अर्थात् उसे अपने
विचारों, भावनाओं, इच्छाओं और क्रियाओं, बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर तथा स्थान और समय, गरिमा और गुरुत्व, प्राकृतिक नियमों एवं भौतिक तत्त्वों आदि सभी पर नियंत्रण
करना चाहिये। उसे निश्चित रूप से सिद्धि या आत्मोपलब्धि करनी चाहिये और सभी
आन्तरिक सुन्दरताओं का व्यावहारिक रूप से अनुभव करना चाहिए। उसे निश्चय ही सभी
प्रकार के बन्धनों, दुःखों और सीमाओं
से ऊपर उठना चाहिये। ...
उसे शारीरिक एवं
मानसिक दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। उसे मृत्युंजयी होना चाहिये। उसे
वास्तविक दृष्टि (दर्शन) अर्थात् परमतत्त्व की मूलभूत विशिष्टताओं को समझने के
लिये अन्तर्दृष्टि की उपलब्धि होनी चाहिये। उसे अज्ञान के परदे को फाड़कर निरपेक्ष
सत्य की अनुभूति करनी चाहिये और उसके साथ तादात्म्य स्थापित योगियों को विभिन्न
संज्ञाएँ सम्भवतः इसलिये दी गई हैं कि जिस उच्चतम आध्यात्मिक आदर्श की अनुभूति के
लिये उन्होंने योग-सम्प्रदाय में प्रवेश किया है, उसकी स्मृति अनंत रूप से बनी रहे। वे किसी भी निम्न कोटि की
सिद्धि, गुह्यशक्ति या दृष्टि से
ही सन्तुष्ट न हों, न उसे अपनी साधना
का लक्ष्य बनावें। वे चमत्कारों की ओर प्रवृत्त न हों, क्यों कि सच्चे योगी के लिये ये सर्वथा तुच्छ हैं। अपनी
साधना के बीच में इस प्रकार की जो शक्ति ये प्राप्त करते हैं, वह उच्च से उच्चतर स्थितियों की उपलब्धि में
आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति में, परमज्ञान और परममुक्ति, परमानन्द और
परमशान्ति तथा मुक्ति या कैवल्य की अनुभूति में प्रयुक्त होनी चाहिये। यह भौतिक
शरीर भी आध्यात्मिक स्पर्श के द्वारा समय और स्थान की सीमाओं से परे दिव्य बना
दिया जाता है, जिसे आध्यात्मिक
शब्दावली में काया-सिद्धि कहते हैं। जो योगी आत्मानुभूति की उच्चतम स्थिति तक
पहुँच जाता है, सामान्यतः अवधूत
कहलाता है। अवधूत से तात्पर्य उस व्यक्ति से है, जो प्रकृति के सभी विकारों का अतिक्रमण कर जाता है, जो प्रकृति की शक्तियों और नियमों से परे है,
जिसका व्यक्तित्व मलिनताओं, सीमाओं, परिवर्तनों तथा इस भौतिक जगत् के दुःखों और बन्धनों के
स्पर्श से परे हो जाता है। वह जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय और राष्ट्र के भेदों से ऊपर उठ जाता
है। वह किसी भी प्रकार के भय, चाह या बन्धन के
बिना पूर्ण आनन्द और स्वच्छन्दता की स्थिति में विचरण करता है। उसकी आत्मा
परमात्मा या भगवान शिव, विश्व के स्रष्टा,
शासक और हर्ता के साथ एकाकार हो जाती है। इस
सम्प्रदाय की प्रामाणिक पुस्तकों में ऐसे अनेक योगियों का उल्लेख मिलता है,
जिन्हें आध्यात्मिक साधना की यह भूमि प्राप्त
हुई थी, जिन्होंने इस जगत् के
प्राणियों के सम्मुख मानव, अस्तित्व की दैवी
सम्भावनाओं का प्रदर्शन किया था। इस प्रकार का अवधूत ही सच्चे अर्थों में नाथ,
सिद्ध या दर्शनी है; जब कि अन्य योगी इस स्थिति की कामना करने वाले मात्र हैं।
विशेष चिह्न और
उनका तात्पर्य
इस सम्प्रदाय के
योगी कुछ निश्चित प्रतीकों का प्रयोग करते हैं, जो केवल व्यवहारगत् साम्प्रदायिक चिह्न न होकर आध्यात्मिक
अर्थ भी रखते हैं। नाथ-योगी का एक प्रकट चिह्न उसके फटे हुये कान तथा उसमें पहने
जाने वाले कुण्डल हैं। इस सम्प्रदाय का प्रत्येक व्यक्ति संस्कार की तीन स्थितियों
से गुजरता है। तीसरी या अन्तिम स्थिति में गुरु उसके दोनों कानों के मध्यवर्ती
कोमल भागों को फाड़ देता है और जब घाव भर जाता है तो उनमें दो बड़े छल्ले पहना दिये
जाते हैं। यही कारण है कि इस सम्प्रदाय के योगी को सामान्यतः कनफटा योगी कहते हैं।
संस्कार का यह अन्तिम रूप योगी शिष्य की सच्चाई और निष्ठा की परीक्षा प्रतीत होता
है, जो इस तथ्य की ओर संकेत
करता है कि शिष्य अति पवित्र जीवन व्यतीत करने तथा रहस्यमय योग-साधना में पूरा समय
और शक्ति देने को प्रस्तुत है। योगी के द्वारा पहना जाने वाला छल्ला ‘मुद्रा’, ‘दरसन’, ‘कुण्डल’ आदि नामों से प्रसिद्ध है। यह गुरु के प्रति
शिष्य के शरीर के पूर्ण आत्मसमर्पण का प्रतीक है। इस प्रकार का आत्मसमर्पण ही
शिष्य के शरीर और मनको पूर्णतः शुद्ध कर देता है। उसे समस्त अहमन्यताओं और
पूर्वाग्रहों से मुक्त करके इतना स्वच्छ कर देता है कि वह ब्रह्म, शिव या परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभति कर सके।
आध्यात्मिक ज्योति को प्रकाशित करने वाले तथा योगियों के जीवन के आदर्श स्वरूप
गुरु के प्रति इस प्रकार के पूर्ण आत्मसमर्पण का तात्पर्य शिष्य के चिन्तन की
स्वच्छन्दता में बाधा पहुँचाना नहीं होता वरन् इस स्वच्छन्दता की पूर्ति करना और
उसे विकसित करना होता है। अवधूत (गुरु) की पूर्ण मुक्त आत्मा के साथ एकत्व स्थापित
करके अहंकारमयी प्रवृत्तियों और इच्छाओं के बन्धन से उसकी आत्मा को मुक्ति प्राप्त
होती है। गोरखनाथ के उन अनुयायियों को, जिन्होंने सभी सांसारिक सम्बन्धों को त्याग दिया है और योगी-सम्प्रदाय में
प्रविष्ट हो गये हैं किन्तु जिन्होंने अन्तिम दीक्षा-संस्कार के रूप में कान नहीं
फड़वाया है, सामान्यतः औघड़ कहते हैं।
इनकी स्थिति बीच की है। एक ओर तो सामान्य शिष्य हैं जो अभी योगी सम्प्रदाय के बाहर
हैं और दूसरी और दरसनी योगी हैं, जिन्होंने
सांसारिक जीवन को पूर्णतः त्याग दिया है और जब तक लक्ष्य- सिद्धि न हो जाय,
योग के गुह्य साधना-मार्ग से विरत न होने का
दृढ़ व्रत लिया है। यद्यपि सम्प्रदाय के औघड़ों का उतना आदर नहीं है, जितना कनफटे योगियों का, फिर भी जब तक उनमें त्याग की भावना है, जबतक वे गुरु के निर्देशों पर दृढ़ हैं और आदर्श
की अनुभूति में अपने जीवन को अर्पण किये रहते हैं, तब तक योग की गुह्य साधना में उन्हें किसी प्रकार की रोक
नहीं है। औघड़ तथा दर्शनी योगी ऊन का पवित्र ‘जनेव’ (उपवीत) पहनते हैं।
इसी में एक छल्ला जिसे ‘पवित्री’ कहते हैं, लगा रहता है। छल्ले में एक नादी लगी रहती है जो ‘नाद’ कहलाती है और इसी के साथ रुद्राक्ष की मनिया भी रहती है। ‘नाद’ उस सतत एवं रहस्यात्मक ध्वनि का प्रतीक है, जिसे प्रणव (ऊँ) की अनाहत ध्वनि कहते हैं, जो परमतत्त्व (ब्रह्म) का ध्वन्यात्मक प्रतीक
है तथा पिण्ड और ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। ...
रुद्राक्ष (शिव
या रुद्र की आँख) तत्त्वदर्शन (ज्ञान) या ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति से
मानव-चेतना के प्रकाशित होने का प्रतीक है। योग-पद्धति के अनुसार स्वभावतः हृदय
स्थित नाद की बाह्य अभिव्यक्ति के रूप में प्रत्येक श्वांस के साथ प्रणव की
पुनरुक्ति, ये दोनों ही ब्रह्म की
साक्षात् चेतना को प्रकाशमान करने के उपाय हैं। यह ‘नाद-योग’ है और प्रतीकों
के द्वारा इसका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। यज्ञोपवीत नाड़ी मण्डल का प्रतीक
है, जिसे नादयोग के अभ्यास से
प्रशान्त और नियमित करना होता है। इस प्रकार योगियों के द्वारा धारण किये जाने
वाले सभी बाह्य उपकरण, जिस सत्य की
उन्हें अनुभूति करनी है, जिस आदर्श तक
उन्हें पहुँचना है और जिस अनुशासन एवं विधि का उन्हें पालन करना है, उसकी स्मृति को सतत सजीव करने के लिए हैं। नाथ
पंथ में अभिवादन की एक अलौकिक प्रथा है। सामान्य जन से अभिवादन के समय इस पंथ के
लोग प्रचलित अभिवादनों का प्रयोग करते हैं। परन्तु आपस में अभिवादन के लिए ‘आदेश’ शब्द का घोष किया जाता है। अपने से वरिष्ठ को अभिवादन करते समय ‘आदेश महाराज जी’ कहा जाता है। प्रति उत्तर में वरिष्ठ द्वारा आदेश-आदेश बोला
जाता है।
उपसम्प्रदाय
गोरखनाथजी का
योगी सम्प्रदाय कई उपपंथों में विभाजित है। इनमें से प्रत्येक या तो गोरखनाथ जी के
निकटतम शिष्य या उनके प्रमुख अनुयायी द्वारा प्रवर्तित हैं। इस सभी उपपंथों की
सामूहिक संख्या 12 मानी जाती है।
इसलिये इन्हें ‘बारह पन्थी’
कहते हैं (अर्थात वह सम्प्रदाय जिसमें 12 उपपंथ हैं)। जिस प्रकार शंकराचार्य के अनुयायी
संन्यासियों की 10 शाखाएँ हैं,
उसी प्रकार गोरखपंथी योगियों की 12 शाखाएँ हैं। ये सभी शाखाएँ साधना-प्रणाली एवं
दार्शनिक मत दोनों में साम्य रखती हैं और सभी गोरखनाथ जी के प्रति श्रद्धालु हैं।
उनमें कुछ छोटी-मोटी भिन्नताएँ हैं। अनेक उपलब्ध तालिकाओं के आधार पर इन उपपंथों
की वास्तविक संख्या 12 से अधिक हो जाती
है। इससे इस बात की पूरी सम्भावना की जा सकती है कि मूल शाखाएँ आगे चलकर कुछ
प्रधान गुरुओं के द्वारा पुनः विभाजित कर दी गयी हैं। सम्प्रदाय के प्रमुख उपपंथ
निम्नलिखित हैं-
1. सतनाथी,
2. रामनाथी, 3. धर्मनाथी, 4. लक्ष्मननाथी, 5. दरियानाथी, 6. गंगानाथी,
7. बैरागीपंथी, 8.रावलपंथी या नागनाथी, 9. जालन्धरनाथी, 10. आई पंथी या ओपन्थी, 11. कापलती या कपिल
पंथी, 12. धज्जा नाथी या महावीर
पंथी। ये विभिन्न पंथ भारतवर्ष के विभिन्न भागों में अपना प्रमुख केन्द्र रखते हैं
किन्तु ये सभी देशव्यापी पंथ एक संगठन से सम्बद्ध हैं। अखिल भारतवर्षीय अवधूत भेष
बारह पंथ योगी महासभा केन्द्रीय संगठन की तरह कार्य करती है। इस केन्द्रीय संगठन
की स्थापना ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ महाराज जी द्वारा की गयी थी। उनके बाद
ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज इस केन्द्रीय संगठन के मुखिया रहे। वर्तमान
में गोरक्षपीठाधीश्वर महंत आदित्यनाथ जी महाराज इस केन्द्रीय संगठन के मुखिया हैं।
विभिन्न पंथों के मुखिया या उनके प्रतिनिधि महंत आदित्यनाथ जी महाराज के
मार्गदर्शन में मंदिर, मठों या पूजा
स्थलों का संचालन करते हैं। अखिल भारतवर्षीय अवधूत भेष बारह पंथ योगी महासभा
भारतवर्ष में धर्माचार्यो का सबसे बड़ा संगठन है।
साहित्य
नाथ-पंथी योगियों
का साहित्य विशाल है- संस्कृत में भी और विभिन्न प्रान्तीय बोलियों और भाषाओं में
भी। योग-साधना तथा सिद्धान्त को लेकर लिखे गये प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के
अतिरिक्त, जिन्हें योगी लोग पूर्णतः
प्रामाणिक मानते हैं, स्वयं गोरखनाथ,
ऐसी अनेक रचनाओं के प्रणेता बताये जाते हैं,
जो योग-साधना के पथ पर चलने वालों के लिये
अमूल्य हैं। सम्प्रदाय के परवर्ती शिक्षकों ने भी प्रचुर साहित्य-सृजन किया है। ‘गोरक्ष-शतक’, गोरख-संहिता, सिद्धान्त-पद्धति, योग-सिद्धान्त
पद्धति, सिद्धसिद्धान्त-पद्धति,
हठयोग, ज्ञानामृत आदि अनेक संस्कृत-ग्रन्थ गोरखनाथ जी कृत बताये जाते हैं। हठ-योग
प्रदीपिका, शिव-संहिता, और घेरण्ड-संहिता योग-साधन सम्बन्धी
महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं और इनके रचयिता इसी सम्प्रदाय के योगी बताये जाते हैं। ‘गोरक्षगीता’, ‘गोरक्षकौमुदी’, ‘गोरक्ष-सहस्रनाम’, ‘योग-संग्रह’,
‘योग-मंजरी’, ‘योग-मार्तण्ड’ तथा इसी प्रकार की अन्य अनेक कृतियाँ गोरखनाथ के शिक्षा-सिद्धान्तों पर आधृत
हैं। इनके साथ ही हिन्दी, बंगाली, मराठी तथा अन्य भाषाओं में इस सम्प्रदाय से
सम्बद्ध अनेक पुस्तकें हैं।
नाथ सिद्ध कौन थे?
‘‘नाथ सिद्ध’’
शब्द ‘‘नाथ’’ एवं ‘‘सिद्ध’’ जैसे दो शब्दों के संयोग से बना है और यह एक विशिष्ट
धार्मिक वर्गवाले लोगों के लिये प्रयुक्त है। इसके अंग बन गये उक्त दोनों में
प्रथम अर्थात ‘‘नाथ’’ कदाचित् अधिक पुराना कहला सकता है, क्योंकि इसके कुछ प्रयोग वैदिक साहित्य तक में
मिलते हैं। ‘‘ऋग्वेद’’ के एक प्रसिद्ध सूक्त के अंतर्गत यह ‘‘समर्थ’’ वा ‘‘सक्षम’ के अर्थ में प्रयुक्त जान पड़ता है, परन्तु ‘‘अथर्ववेद’’ के एक स्थल पर
इसका प्रयोग वस्तुतः ‘‘आश्रय ग्रहण करने
योग्य स्थान’’ के लिए किया गया
प्रतीत होता है तथा वहीं अन्यत्र इसे ‘‘स्वामी’’ अथवा ‘‘रक्षक’’ के अर्थ में भी प्रयुक्त समझा जा सकता है। इसी प्रकार
बौद्धों के प्रसिद्ध मान्य ग्रन्थ ‘‘धम्मपद’’ के अन्तर्गत भी,
हम इसे ‘‘स्वामी’’ अथवा ‘‘मालिक’’ वाले अर्थ में व्यवहृत होता देखते हैं। इसके सिवाय, जैन धर्म वाले दिगम्बर संप्रदाय के साहित्य में
भगवान महावीर के कुल का नाम तक ‘‘नाथवंश’’ के रूप में दिया गया पाया जाता है।
‘‘नाथ सिद्ध’’
शब्द उन लोगों का बोध कराता है, जिन्होंने न केवल परमात्मतत्त्व का अपनी साधना
द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया हो, प्रत्युत जो इस प्रकार पूर्ण सफल बन कर उसके तद्रूप तक भी हो चुके हों और जो
दूसरों के लिए आदर्श कहे जा सकते हों।
‘‘नाथ सिद्ध’’
शब्द का एक पर्याय-वाची शब्द ‘‘नाथ योगी’’ भी है, जिसमें जुड़े हुए ‘‘योगी’’ को भी तत्त्वतः ‘‘सिद्ध’’ से अधिक भिन्न नहीं कहा जा सकता। इन दोनों में
से किसका प्रयोग, सर्वप्रथम किया
गया होगा तथा ये कब से प्रयुक्त होते आये हैं, इस बात का निर्णय करने के लिए यथेष्ट साधन उपलब्ध नहीं हैं।
इस सम्बन्ध में, अभी तक केवल इतना
ही कहा जा सकता है कि ये कदाचित् बहुत पुराने नहीं ठहराये जा सकते। हो सकता है कि ‘‘नाथ सिद्ध’’ का प्रयोग पहले पहल बौद्ध धर्मावलम्बी सहजयानी या वज्रयानी
सिद्धों से भिन्नता दिखलाने के ही लिए किया गया हो तथा नाथपंथियों के मूलतः योगी
भी होने के कारण, अधिकतर ‘‘नाथ योगी’’ शब्द का ही व्यवहार स्वभावतः होता आ रहा हो। ‘‘इसमें संदेह नहीं कि ‘‘नाथ सिद्ध’’ के स्थान पर केवल
‘‘नाथ’’ शब्द का प्रयोग कहीं अधिक प्रचलित रहता आया है
और तदनुसार ही, नाथों के मत को ‘‘नाथमत’’ और उसके अनुयायियों को ‘‘नाथपंथी’’ कहने की परम्परा
है।
प्रादुर्भाव और
विलय का कोई लेख अब तक प्राप्त नही हुआ।पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों
में तथा औरदूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे
सुचारु रुप से मिलती है।श्री नाथजी गोरक्ष ने चारो युगों में चार भिन्न-भिन्न
क्षेत्रों में प्रगट होकर योग मार्ग का प्रचार किया, और सामान्य मनुष्य, चक्रवर्ती सम्राटो और साथ ही अनेक दैवीय अवतारों को भी उपदेशित किया. सतयुग
में पंजाब के पेशावर में, त्रेता युग में
गोरक्षपुर में, द्वापर युग में
द्वारिका के आगे हुरभुज में और कलिकाल में काठियावाड की गोरखमढ़ी में प्रादर्भूत
हुये थे. श्री गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने
योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को
उपदेश दिया और हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ
जन समाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया।
श्री गोरक्षनाथ
ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो
चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं।श्री
गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे
दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द प्राप्त किया तथा जन-कल्याण
में अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए।श्री गोरक्षनाथ ने
संसारिक और गुरु शिष्य परंपरा मर्यादा की रक्षा के अर्थ श्री मत्स्येन्द्रनाथ को
अपना गुरु माना और चिरकाल तक इन दोनों में शंका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा।
अनुयायी तीन श्रेणी
मे विभाजीत है :-
1) अवलंबी या साथी –
इस चरण में योगी
पंथ के बारे मे अध्ययन करता हैंतथा उसे जिज्ञासु माना जाता है, ऐसे शिष्य को अपने गुरू द्वारा नाथ पंथ के विषय
मेंमार्गदर्शन तथा केवल मंत्र दिक्षा दी जाती है,ऐसे नये साधकों को “नाथजी का नाती” कहा जाता है.
2) औघड पीर –
इस चरण में शिष्य
अपने मुख्य गुरू का चुनाव करता है जो उस साधक को पंथ से अविगत करायेंगे.इसे “चोटी दिक्षा” कहा जाता है.चोटी दीक्षा के समय गुरू द्वारा अपने शिष्य को
नाथअंत नाम तथा नाथ पंथ की कुछ निशानीया प्रदान की जाती हैं जिसका औघड योगी अपनी नित्य
साधना में उपयोग करते है.जिसमे भगवा वस्त्र, रूद्राक्ष माला और मुख्य नादी जनेउ होते है.नादी जनेउ नाथ
योगी की मुख्य निशानी होती है,जिसके द्वारा पंथ
मे उसे पहचान मिलती है.जनेउ भेड के काले उन से बना होता है, जिसमे तीन तंतु होते है,जिनहे मनुष्य देह की 72000नाडी की मुख्य नाडीईडा, पिंगळा और सूशुमना नाडी का प्रतीक माना जाता है.जनेउ के
निचले हीस्से मेधातु की पवित्री, स्फटिक, रुद्राक्ष , मुंगा तथा नादी होते हैं,नादी जो शब्द ब्रह्म का प्रतीक होती है,नाथ योगी तीन बार नादी बजाकर अपने गुरू,
देवी देवता तथा समाधी ईत्यादी को आदेश (नमन)
करते हैं.नाद अनुसंधान के वक्त योगी को अपने अनाहत चक्र मे नाद सुनाई देता है तथा
उस स्थान पर योगी अपने गुरू तथा ईष्टदेव का ध्यान करते है.औघड योगी का पंथ में
दर्शनी योगी से आधा मान होती हैं.
3) दर्शनी अवधुत
योगी –
दर्शनी या जिसे
चिरा दिक्षा भी कहते है,इस दिक्षा को नाथ
पंथ मे मुख्य माना जाता है,दिक्षा के समय
गुरू अपने शिष्य के कानो के मध्य में चिरा लगा कर उसमे मिट्टी के बडे कुंडल
(दर्शन) पहनाते है. जिन्हें “योग डंड” या “मुद्रा” कहा जाता है,ईन कुंडलो का संबंध वहा से प्रवाहीत होती
नाडीयो से होता है. जिनके धारण करने से,योगी को दिव्य अनुभव होते हैं,श्री गोरक्षनाथ
जी ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाडने को
तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और
वैराग्य का बल प्रकट करता है।श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने
अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फडाने के पश्चात
मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक
परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है,चिरा दिक्षा के पश्चात योगी पुर्ण रूप से नाथ अवधुत कहलाता
है,दर्शनी योगी का औघड योगी
से ज्यादा मान होता है.मुख्यतः दर्शनी योगी को संप्रदाय में गुरू और पंथ के
प्रतिनिधी के तौर पर देखा जाता है.
इन दिक्षाओ के
अलावा नाथ योगियों में,उपदेशी दीक्षा,
भभूत दीक्षा और लंगोट दीक्षा भी होती है।
सन्यास दीक्षा
7) संन्यासी याने
जिसका ओंकार से न्यास याने जुडना हुआ
संन्यासी सोइ जो
करै सब नास । गगन मंडल महि
मांडै आस ।।
अनहद सूं मन
उन्मन रहै । सो संन्यासी अगम
की कहै ।।
अर्थात - यहां गोरखनाथजी कहते हैं - करै सब नास याने जो खुद के मनसे सब कुछ आस
निकाल कर - नाश कर - छोड कर गगन मंडल याने इस
तन के भीतर के मस्तिष्काकाश में, भीतर के शून्य
में आसन जमाता है। तब एक हाथ की
ताली - अनहद - दो चिजों के आघात के बगैर उपजे नाद पर - शबद पर - ओंकारपर मन को जोड
देता है - योग याने जुड जाता है और भीतर के शून्य में डूबकर उन्मन याने निर्विचार
होता है, फिर वह इस जगत की
बातें छोडकर जिसकी कोई सीमा नहीं, जो सबको अगम्य है
उसकी ही बातें करता है, उसे गोरखनाथजी
संन्यासी कहते हैं । संन्यासी याने
जिसका ओंकार से न्यास याने जुडना हुआ । संन्यासी याने संसार छोडकर भागनेवाला
भगोड़ा नहीं । यही भगवद्गीता में भगवान कृष्ण भी कहते हैं - अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं करोति यः। स संन्यासी च योगी न निरग्निर्नच अक्रियः।।
अर्थात - अग्नि घर के चुलेमें होता है, तो अग्नि याने घर गृहस्थी का त्याग करनेवाला
संन्य���सी नहीं और सारी दुनिया छोड़कर जंगलमें जाकर
निष्क्रीय रहनेवाला भी संन्यासी नहीं । जो कर्म फलों की आशा छोडकर नित्य विहीत
कर्म करते हुए अनहद से जुडनेका कार्य करता है, भगवान कृष्ण कहते हैं वही संन्यासी होता है ।
इस संप्रदाय को
किसी भी जाति, वर्ण व किसी भी
उम्र में अपनाया जा सकता है।सन्यासी का अर्थ काम ,क्रोध , मोह ,लोभ आदि बुराईयों का त्याग कर समस्त संसार से
मोह छोड़ कर शिव भक्ति में समाधी लगाकर लीन होना बताया जाता है।प्राचीन काल में
राजे -महाराजे भी अपना राज-पाठ छोड़ सन्यास इसी लिए लिया करते थे
ताकि वे अपना बचा
हुआ जीवन सांसारिक परेशानियों को त्याग कर साधुओ की तरह साधारण जीवन बिताते थे।
नाथ संप्रदाय को अपनाने के बाद 7 से 12 साल की कठोर तपस्या के बाद ही सन्यासी को
दीक्षा दि जाती थी। विशेष परिस्तिथियों में गुरु अनुसार कभी भी दीक्षा दि जा सकती
है।
दीक्षा देने से पहले वा बाद
में दीक्षा पाने वाले को उम्र भर कठोर नियमो का पालन करना होता है। वो कभी किसी
राजा के दरबार में पद प्राप्त नहीं कर सकता , वो कभी किसी राज दरबार में या राज घराने में भोजन नहीं कर
सकता परन्तु राज दरबार वा राजा से भिक्षा जरुर प्राप्त कर सकता है। उसे बिना सिले
भगवा वस्त्र धारण करने होते है ।हर साँस के साथ मन में आदेश शब्द का जाप करना होता
है था किसी अन्य नाथ का अभिवादन भी आदेश शब्द से ही करना होता है । सन्यासी योग व
जड़ी- बूटी से किसी का रोग ठीक कर सकता है पर एवज में वो रोगी या उसके परिवार से
भिक्षा में सिर्फ अनाज या भगवा वस्त्र ही ले सकता है। वह रोग को ठीक करने की एवज
में किसी भी प्रकार के आभूषण , मुद्रा आदि ना ले
सकता है और न इनका संचय कर सकता। सांसारिक मोह को त्यागना पड़ता है दीक्षा देने के
बाद सन्यासी ,जोगी , बाबा के दोनों कानों में छेड़ किये जाते है और
उनमे गुरु द्वारा ही कुण्डल डाले जाते है ।
जिन्हें धारण
करने के बाद निकला नहीं जा सकता। बिना कुण्डल के किसी को योगी ,जोगी ,बाबा, सन्यासी नहीं माना जा
सकता ऐसा सन्यासी जोगी जरुर होता है परन्तु उसे गुरु द्वारा दीक्षा नहीं दि गई
होती । इसलिए उन्हें अर्ध सन्यासी के रूप मे माना जाता है।
प्रचलित नवनाथ
नाथ सम्प्रदाय
मेंं प्रचलित नवनाथ ध्यान, वन्दना व स्तुति
मंत्रोंजिन नामों का प्रचलन है और सम्प्रदाय के संतो, साधुओ और योगीजनो द्वारा जिन नामों का अपने योग ग्रन्थों
मेंं वर्णन किया है वे नवनाथ क्रमष -१- आदिनाथ शिव, २- उदयनाथ पार्वती,३- सत्यनाथ ब्रह्मा, ४- संतोषनाथ
विष्णु,५- अचल अचम्भेनाथ शेषनाग,
६- गजकंथडनाथ गणेश,७- चौरंगी नाथ चन्द्रमा, ८- मत्स्येन्द्रनाथ माया स्वरूप,९- गुरु गोरक्षनाथ शिव बाल स्वरूप.
नाथ सम्प्रदाय 5 के गुरु
सम्प्रदाय में कई
भाँति के गुरु होते हैं यथाः-
चोटी गुरु,
चीरा गुरु,उपदेशी गुरु, भस्मी गुरु, लंगोट गुरु आदि।
श्री गोरक्षनाथ
ने कर्ण छेदन
श्री गोरक्षनाथ
ने कर्ण छेदन- या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी, यह एक योगिक क्रिया के साथ दिव्य साधना रूप परीक्षा भी है,कान चिराने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति,
दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है।श्री
गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर
परीक्षा नियत कर दी।कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से
स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं।चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब
भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को ‘ओघड़’ कहते है और इसका आधा मान
होता है।
नाथ योगी का जनेऊ
नाथ योगी अपने
गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते है।गले में एक लकड़ी अथवा धातु की नादी और
पवित्री रखते है।इन दोनों को “नादी जनेऊ”
भी कहते है,नाथ योगी मूलतः शैव हैंअर्थात शिव की उपासना करते है।षट्
दर्शनों में योग का स्थान अत्युच्च है और नाथ योगी,योग मार्ग पर चलते हैं अर्थात योग क्रिया करते है जो कि
आत्म दर्शन का प्रधान साधन है।जीव ब्रह्म की एकता का नाम योग है।चित्त वृत्ति के
पूर्ण निरोध का योग कहते है।
आदेश शब्द का
अर्थ
सम्प्रदाय के
योगी आदेश आदेश शब्दों का उपयोग क्यो करते है ?।
आदेश -आदेश:- नाथ
संप्रदाय के अनुयायी जब अन्य जाति या स्व जाति के लोगों से मिलते हैं
तब “नमस्कार” “राम राम” या उनके स्थान पर
“आदेश-आदेश” का उच्चारण करते हैं ।
इसी से वह आपस
में एक दूसरे का अभिवादन करते हैं।
नाथों के पावन
ग्रंथ “सिद्ध सिद्धांत पद्धती”
में आदेश का स्वरुप स्पष्ट दर्शाया गया है।
उसके अनुसार
जिसके प्रति “आदेश” के उचारण द्वारा ब्रह्म रूप का प्रतिपादन होता
है
सिद्ध
सिद्धांतपद्धति”आ” आत्मा”दे” देवात्मा/परमात्मा”श” शरीरात्मा/जीवात्माआत्मा, परमात्मा और
जीवात्मा की अभेदता ही सत्य है, इस सत्य का अनुभव
या दर्शन ही “आदेश कहलाता है.
व्यावहारिक चेतना की आध्यात्मिकता प्रबुद्धता जीवात्मा और आत्मा तथा परमात्मा की
अभिन्नता के साक्षात्कार मे निहितहै. इन तथ्यों का ध्यान रखते हुए जब योगी
एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं अथवा गुरुपद मे प्रणत होते हैं तो “आदेश-आदेश” का उच्चारण का जीवात्मा, विश्वात्मा और परमात्मा के तादात्म्य का स्मरण करते हैं.
एक और रूप में “आदेश” का अर्थ = आदि+ ईश, आदि से आशय है
महान या प्रथम, और ईश से आशय
देवता से है,अर्थात प्रथम देव
या “महादेव”….और आदिनाथ भगवान शिव द्वारा प्रवर्तित होने के
कारण “नाथ सम्प्रदाय” के योगियो तथा अनुयायिओ द्वारा “आदेश” का संबोधन किया जाता है।
जीवन शैली
नाथ साधु-संत
परिव्राजक होते हैं। वे भगवा रंग के बिना सिले कपडे धारण करते हैं। ये योगी अपने
गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले
में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं। उनके
एक हाथ में चिमटा, दुसरे हाथ में कमंडल,
दोनों कानों में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यानमग्न रहना और इनकी प्रधान वेश-भूषा भगवा है। वे
नाथपंथी भजन गाते हुए घूमते हैं औ्रर भिक्षाटन कर जीवन यापन करते हैं। उम्र के
अंतिम चरण में वे किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं। कुछ नाथ साधक
हिमालय की गुफाओं में चले जाते हैं।
साधना-पद्धति
इस पंथ में
सात्विक भाव से शिव की भक्ति की जाती है। वे शिव को अलख (अलक्ष) नाम से संबोधित
करते हैं। ये अभिवादन के लिए 'आदेश' या आदीश शब्द का प्रयोग करते हैं। अलख और आदेश
शब्द का अर्थ प्रणव या 'परम पुरुष'
होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतिधारी भी
उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी
प्रांत में 'बाबाजी' या 'गोसाई समाज' का माना जाता है।
इन्हें उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर
विशेष बल देते हैं।
नाथ संप्रदाय के
बारह
नाथ संप्रदाय के
योगी एवं अनुयायी मुख्यतः बारह शाखाओं में विभक्त हैं, जिसे बारह पंथ कहते हैं ।इन बारह पंथों के कारण नाथ
संप्रदाय को ‘बारह-पंथी’
योगी भी कहा जाता है । प्रत्येक पंथ का एक-एक
विशेष स्थान है, जिसे नाथ लोग
अपना पुण्य क्षेत्र मानते हैं । प्रत्येक पंथ एक पौराणिक देवता अथवा सिद्ध योगी को
अपना आदि प्रवर्तक मानता है ।नाथ संप्रदाय के बारह पंथों का संक्षिप्त परिचय इस
प्रकार है -१) सतनाथ२) धर्मनाथ३) दरियानाथ (नटेश्वरी)४) आई पंथी५) वैराग के६) राम
के७) कपिलानी८) गंगानाथी९) मन्ननाथी१०) रावल के११) पाव पंथ१२) पागल पंथईनके अलावा
धव्जपंथी, कंथडपंथी, गोपाल पंथ ,वन के, पकं (पंख),
हेठ नाथी,ईत्यादी मिलाकर पंथ की कुल संख्या १२-१८ मानी गई है.
नाथ सम्प्रदाय के
बारह पंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –
१॰ सत्यनाथ पंथ –
इनकी संख्या 31 बतलायी गयी है । इसके मूल प्रवर्तक सत्यनाथ (भगवान्
ब्रह्माजी) थे ।
इसीलिये सत्यनाथी
पंथ के अनुयाययियों को “ब्रह्मा के योगी”
भी कहते हैं ।
इस पंथ का प्रधान
पीठ उड़ीसा प्रदेश का पाताल भुवनेश्वर स्थान है ।
२॰ धर्मनाथ पंथ –
इनकी संख्या २५ है ।
इस पंथ के मूल
प्रवर्तक धर्मराज युधिष्ठिर माने जाते हैं ।
धर्मनाथ पंथ का
मुख्य पीठ नेपाल राष्ट्र का दुल्लुदेलक स्थान है ।
भारत में इसका
पीठ कच्छ प्रदेश धिनोधर स्थान पर हैं ।
३॰ राम पंथ –
इनकी संख्या ६१ है ।
इस पंथ के मूल
प्रवर्तक भगवान् श्रीरामचन्द्र माने गये हैं ।
इनका प्रधान पीठ
उत्तर-प्रदेश का गोरखपुर स्थान है ।
४॰ नाटेश्वरी पंथ
अथवा लक्ष्मणनाथ पंथ –
इनकी संख्या ४३ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक
लक्ष्मणजी माने जाते हैं ।
इस पंथ का मुख्य
पीठ पंजाब प्रांत का गोरखटिल्ला (झेलम) स्थान है ।
इस पंथ का
सम्बन्ध दरियानाथ व तुलनाथ पंथ से भी बताया जाता है ।
५॰ कंथड़ पंथ –
इनकी संख्या १०
है । कंथड़ पंथ के मूल प्रवर्तक गणेशजी कहे गये हैं ।
इसका प्रधान पीठ
कच्छ प्रदेश का मानफरा स्थान है ।
६॰ कपिलानी पंथ –
इनकी संख्या २६ है । इस पंथ को गढ़वाल के राजा
अजयपाल ने चलाया ।
इस पंथ के प्रधान
प्रवर्तक कपिल मुनिजी बताये गये हैं ।
कपिलानी पंथ का
प्रधान पीठ बंगाल प्रदेश का गंगासागर स्थान है ।
कलकत्ते
(कोलकाता) के पास दमदम गोरखवंशी भी इनका एक मुख्य पीठ है ।
७॰ वैराग्य पंथ –
इनकी संख्या १२४ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक
भर्तृहरिजी हैं ।
वैराग्य पंथ का
प्रधान पीठ राजस्थान प्रदेश के नागौर में राताढुंढा स्थान है ।
इस पंथ का
सम्बन्ध भोतंगनाथी पंथ से बताया जाता है ।
८॰ माननाथ पंथ –
इनकी संख्या १० है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक
राजा गोपीचन्द्रजी माने गये हैं ।
इस समय माननाथ
पंथ का पीठ राजस्थान प्रदेश का जोधपुर महा-मन्दिर नामक स्थान बताया गया है ।
९॰ आई पंथ –
इनकी संख्या १०
है । इस पंथ की मूल प्रवर्तिका गुरु गोरखनाथ की शिष्या भगवती विमला देवी हैं ।
आई पंथ का मुख्य
पीठ बंगाल प्रदेश के दिनाजपुर जिले में जोगी गुफा या गोरखकुई नामक स्थान हैं ।
इनका एक पीठ
हरिद्वार में भी बताया जाता है । इस पंथ का सम्बन्ध घोड़ा चौली से भी समझा जाता है
।
१०॰ पागल पंथ –
इनकी संख्या ४ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री
चौरंगीनाथ थे ।
जो पूरन भगत के
नाम से भी प्रसिद्ध हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब-हरियाणा का अबोहर स्थान है ।
११॰ ध्वजनाथ पंथ –
इनकी संख्या ३ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक
हनुमानजी माने जाते हैं ।
वर्तमान में इसका
मुख्य पीठ सम्भवतः अम्बाला में है ।
१२॰ गंगानाथ पंथ –
इनकी संख्या ६ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री
भीष्म पितामह माने जाते हैं ।
इसका मुख्य पीठ
पंजाब में गुरुदासपुर जिले का जखबार स्थान है ।
कालान्तर में नाथ
सम्प्रदाय के इन बारह पंथों में छह पंथ और जुड़े –
१॰ रावल
(संख्या-७१), २॰ पंक (पंख),
३॰ वन, ४॰ कंठर पंथी, ५॰ गोपाल पंथ तथा
६॰ हेठ नाथी ।
इस प्रकार कुल
बारह-अठारह पंथ कहलाते हैं ।
बाद में अनेक
पंथ जुड़ते गये, ये सभी
बारह-अठारह पंथों की उपशाखायें अथवा उप-पंथ है ।
कुछ के नाम इस प्रकार हैं – अर्द्धनारी, अमरनाथ, अमापंथी। उदयनाथी,
कायिकनाथी, काममज, काषाय, गैनीनाथ, चर्पटनाथी, तारकनाथी,
निरंजन नाथी, नायरी, पायलनाथी,
पाव पंथ, फिल नाथी, भृंगनाथ आदि
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों
की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा
गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह
भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की
प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ
संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे
निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई
पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे।
आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं
साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य
पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है।
नवनाथ नाथ
सम्प्रदाय के सबसे आदि में नौ मूल नाथ हुए हैं । वैसे नवनाथों के सम्बन्ध में काफी
मतभेद है
, किन्तु वर्तमान
नाथ सम्प्रदाय के १८-२० पंथों में प्रसिद्ध नवनाथ क्रमशः इस प्रकार हैं –
१॰ आदिनाथ –
ॐ-कार शिव, ज्योति-रुप
२॰ उदयनाथ –
पार्वती, पृथ्वी रुप
३॰ सत्यनाथ –
ब्रह्मा, जल रुप
४॰ संतोषनाथ –
विष्णु, तेज रुप
५॰ अचलनाथ
(अचम्भेनाथ) – शेषनाग, पृथ्वी भार-धारी
६॰ कंथडीनाथ – गणपति, आकाश रुप
७॰ चौरंगीनाथ –
चन्द्रमा, वनस्पति रुप
८॰
मत्स्येन्द्रनाथ – माया रुप,
करुणामय
९॰ गोरक्षनाथ –
अयोनिशंकर त्रिनेत्र, अलक्ष्य रुप
चौरासी और नौ नाथ
परम्परा
आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के
वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे। सिद्ध धर्म की वज्रयान
शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे। उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चौरासी मानी
गई है।
चौरासी सिद्ध
८४ सिद्ध नाथ इस
प्रकार हैं –
१॰ सिद्ध चर्पतनाथ,२॰ कपिलनाथ,३॰ गंगानाथ,४॰ विचारनाथ,५॰ जालंधरनाथ,६॰ श्रंगारिपाद,७॰ लोहिपाद,८॰ पुण्यपाद,९॰ कनकाई,१०॰ तुषकाई,११॰ कृष्णपाद,१२॰ गोविन्द नाथ,१३॰ बालगुंदाई,१४॰ वीरवंकनाथ,१५॰ सारंगनाथ,१६॰ बुद्धनाथ,१७॰ विभाण्डनाथ,१८॰ वनखंडिनाथ,१९॰ मण्डपनाथ,२०॰ भग्नभांडनाथ,२१॰ धूर्मनाथ ।२२॰ गिरिवरनाथ,२३॰ सरस्वतीनाथ, २४॰ प्रभुनाथ,२५॰ पिप्पलनाथ,२६॰ रत्ननाथ,२७॰ संसारनाथ,२८॰ भगवन्त नाथ,२९॰ उपन्तनाथ,३०॰ चन्दननाथ,३१॰ तारानाथ,३२॰ खार्पूनाथ,३३॰ खोचरनाथ,३४॰ छायानाथ,३५॰ शरभनाथ,३६॰ नागार्जुननाथ,३७॰ सिद्ध गोरिया,३८॰ मनोमहेशनाथ,३९॰ श्रवणनाथ,४०॰ बालकनाथ,४१॰ शुद्धनाथ,४२॰ कायानाथ ।४३॰ भावनाथ,४४॰ पाणिनाथ,४५॰ वीरनाथ,४६॰ सवाइनाथ,४७॰ तुक नाथ,४८॰ ब्रह्मनाथ,४९॰ शील नाथ,५०॰ शिव नाथ,५१॰ ज्वालानाथ,५२॰ नागनाथ,५३॰ गम्भीरनाथ,५४॰ सुन्दरनाथ,५५॰ अमृतनाथ,५६॰ चिड़ियानाथ,५७॰ गेलारावल,५८॰ जोगरावल,
५९॰ जगमरावल,६०॰ पूर्णमल्लनाथ,६१॰ विमलनाथ,६२॰ मल्लिकानाथ,६३॰ मल्लिनाथ ।६४॰ रामनाथ,६५॰ आम्रनाथ,६६॰ गहिनीनाथ, ६७॰ ज्ञाननाथ,६८॰ मुक्तानाथ,६९॰ विरुपाक्षनाथ,७०॰ रेवणनाथ,७१॰ अडबंगनाथ,७२॰ धीरजनाथ,७३॰ घोड़ीचोली,७४॰ पृथ्वीनाथ,७५॰ हंसनाथ,७६॰ गैबीनाथ,७७॰ मंजुनाथ,७८॰ सनकनाथ,७९॰ सनन्दननाथ,८०॰ सनातननाथ,८१॰ सनत्कुमारनाथ,८२॰ नारदनाथ,८३॰ नचिकेता,८४॰ कूर्मनाथ ।
साधना के लिए
उपयुक्त दिन
गोरख नाथ जी
की पूजा केलिए श्रावण मास का सोमवार
उपयुक्त माना गया है |सोमवार ,बृहस्पतिवार
का दिन भी शुभ माना गया है | भाद्रपद ,आश्विन और
कार्तिक मास की पूर्णिमा को भी शुभ माना गया है |वैशाख मास की एकादशी जो वरुथिनी एकादशी के नाम से भी जानी
जाती है ,वह भी शुभ मानी जाती है |
आरम्भ आदिनाथ
शंकर से हुआ है और इसका वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ
भगवान शंकर के अवतार हुए है। इनके प्रादुर्भाव और अवसान का कोई लेख अब तक प्राप्त
नही हुआ।
पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक
आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन
ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है। श्री
गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने योग क्रियाओं
द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को उपदेश दिया और
हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ जन समाज को एक
बहुत बड़ा साधन प्रदान किया।श्री गोरक्षनाथ ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत
भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों
के आश्रमों में सुरक्षित हैं।
नाथ सम्प्रदाय के
अनुयायी मुख्यतः बारह शाखाओं में विभक्त हैं, जिसे बारह पंथ कहते हैं ।
इन बारह पंथों के
कारण नाथ सम्प्रदाय को ‘बारह-पंथी’
योगी भी कहा जाता है ।
प्रत्येक पंथ का
एक-एक विशेष स्थान है, जिसे नाथ लोग
अपना पुण्य क्षेत्र मानते हैं ।
प्रत्येक पंथ एक
पौराणिक देवता अथवा सिद्ध योगी को अपना आदि प्रवर्तक मानता है ।
सृष्टि के आरम्भ
में ही भगवान शिव, नाथ स्वरुप में प्रकट हुए ! नाथ यानि जो कुछ भी है स्वयं का
है और शिव स्वयं स्वयंभू हैं,
यदि शरीर स्त्री का है तो पुरुष उसकी पूर्णता है
और यदि शरीर पुरुष है तो स्त्री उसकी पूर्णता है. शिव है
तो शक्ति के कारण और शक्ति शिव के कारण है यही
अभेद मत सिद्ध मत कहलाता है.
इसलिए
अर्धनारीश्वर शिवलिंग रूप को पूजने वाला या निराकार स्वरुप को माननेवाला सिद्ध
कहलाता है !
नाथ और सिद्ध एक
ही है किन्तु एकभेद है जो दोनों को अलग करता है ! नाथ योग मार्गी है अपने पर काबू
कर अपना स्वामी हो जाना नाथ हो जाना है.
और सिद्ध अपनी शक्तियों को विविध माध्यमों जैसे
तंत्र, मंत्र, योग, औषधि आदि से जगा कर सृष्टि सहित व सर्व हित में लगा देना सिद्ध मार्ग का लक्षण
है. किन्तु नाथ हुए
बिना सिद्ध नहीं
हो सकता और नाथ बिना सिद्ध हुए लगभग मुर्दा है. ये संप्रदाय शिव से शुरू हो कर आज
तक के पड़ाव तक पहुंचा है.
पर आज सिद्ध और
नाथ एक मत नहीं रहे अलग-अलग संप्रदाय दो हो गए हैं. सिद्धों में भी कई उप संप्रदाय
बन गए हैं
और नाथों में भी. नाथ संप्रदाय को गुरु
मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने वर्तमान नाथ स्वरुप में ढला है.
जबकि पहले नाथ
बाबा गृहस्थ में रमे हुए या घुमक्कड़ बाबा
होते हुए भी स्त्रीसंग या विवाह कर लेते थे.
इसी कारण सिद्धों
का एक मार्ग बना बज्रयान,जो मांस मदिरा
जहर जैसे पदर्थों का भी आहार ले करसुरक्षित रह लेता था.
स्त्री संग या
विवाह आदि को साधारण कार्य मानता था और मंत्र तंत्र की महाविद्याओं में निपुण हो
गया था. किन्तु धीरे धीरे इस
मार्ग में
विकृतियाँ आने लगी ये केवल भोग का ही मार्ग रह गया.तब गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के
बिखराव और
इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण
किया। एक ऐसी व्यवस्था दी
जो आजतक निरंतर चल ही रही है. ब्रजयान को
त्तिब्बतियों नें अपने बौद्ध धर्म में जोड़ कर प्रमुख स्थान दिया.
यहाँ तक की उनकी एक प्रमुख शाखा ही ब्रजयानी
कहलाती है.
गुरु मच्छेंद्र
नाथ और गोरखनाथ को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है.
सिद्ध नाथ हिमालयों वनों एकांत स्थानों में निवास करते हैं. ये सभी परिव्रराजक
होते है यानि घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के
अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो
जाते हैं। सिद्धों के पास कुछ नहीं होता शिव की तरह घुटनों तक एक उनी कपड़ा होता
है व सर्दियों में ऊपर से एक टुकड़ा लपेट लेते है. जबकि नाथों के पास हाथ में चिमटा,
कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध,
जटाधारी होते हैं. मूलत: पहले दोनों एक ही थे
इसलिए नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध भी कहा जाता है. ये योगी अपने गले में काली
ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं।
इन दोनों को 'सींगी सेली'
कहते हैं। नाथ पंथी साधक शिव की भक्ति में लीन
रहते हैं. नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान रते हैं. एक दूसरे को 'आदेश' कह कर नमस्कार या
अभिवादन करते हैं. अलख और आदेश शब्द का अर्थ ॐ या सृष्टी पुरुष यानि भगवन होता है.
जो नागा यानि वस्त्र रहित साधू है वे भभूतीधारी भी नाथ सम्प्रदाय से ही है. अब अलग
मत में सम्मिलित हैं.सिद्धों और नाथ योगियों मेंजो महँ तेजस्वी उत्त्पन्न हुए उनस
ही आगे बैरागी,उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय चले हैं ये माना जाता है.
नाथ साधु- संत हठयोग, तप और सिद्धियों
परविशेष बल देते हैं. सिद्धों में ८४ सिद्ध महँ तपस्वी और चमत्कारी हुए और नाथों
में नवनाथ प्रमुख हुए जिनकी कहानिया जन-जन में फैली हुयी हैं. ।-आदिनाथ,आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ,
महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ (इनके नामों में भेद है
यानि कई अलग-अलग नामों से एक ही आचार्य को संबोधित कि या जाता है जैसे नौ नाथ गुरु
: 1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ. इसलिए नामों को लेकर चिंतित न
हों) इनके बाद इनके बारह शिष्य हुए -
नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ,
कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ या 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3.
गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ इतिहासकारों के अनुसार आठवी सदी
में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध
धर्म के महायान से वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ. ये सभी भी नाथ ही थे. सिद्ध
धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे. सिद्धो के उदहारण-आदि नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ,
अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ,
चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गोरक्षनाथ। केवल भगवान दत्तात्रेय
एइसे जोगी हैं जो सिद्ध नाथ होते हुए यानि शैव- शक्त होते हुए भी वैष्णव हैं.
सिद्ध पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे
प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती
है। सिद्ध और नाथ संप्रदाय वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत होते है.
जिन्होने अतिकठिन महाशक्तियों को तपस्या द्वारा प्राप्त कर आत्सात किया और कल्याल
हेतु संसार को उपदेश दिया. हठ योग की प्रक्रियाओं द्वारा भयानक रोगों से बचने के
लिए जन समाज को योग का ज्ञान दिया. नाथों और सिद्धों के चमत्कारों से प्रभावित
होकर बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए. उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर
निजानन्द अनुभव किया और जन-कल्याण में जुट गए. श्री गोरक्षनाथ ने सिद्ध परम्परा के
महायोगी श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और लेकिन तंत्र मार्ग और वामाचार
के कारण (योग और भोग एक साथ का सिद्धांत) लम्बे समय तक दोनों में शंका के समाधान
के रुप में संवाद चलता रहा. मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर
माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं.इतिहासकारों नें नाथ परम्परा की
पुनर्स्थापना का काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व बताया है.जिसका आधार शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ
मन जाता है. महात्मा बुद्ध काल में सिद्धों में वाममार्ग का प्रचार बहुतज्यादा था
जिसके सिद्धान्त भी बहुत ऊँचे थे,लेकिन साधारण
बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर तंत्र मर्गियों को बुरा समझा
और सभी इसकी आड़ में भोग विलास सहित पापाचार करने लगे. ये सिद्ध वज्रयान के
मतानुयायियों का सबसेबुरा काल था. श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत
बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ
परइनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं. यहाँ तक कि नेपाल की राजकीयमुद्रा (सिक्के)
पर श्री गोरक्ष का नाम था और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं. काबुल-गान्धर
सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक
कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था. इस सम्प्रदाय
में कई भाँति के गुरु होते हैं जैसे- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु,
टोपा गुरु आदि.श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण
छेदन-कानफाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी. कान फाडने को तत्पर होना
कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य
का बल प्रकट करता है.श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने
अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी. कान फडाने के पश्चात
मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं. चिरकाल तक
परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है. बिना कान फटेसाधु को 'ओघड़' कहते है और इसका आधा मान होता है. ये आधा अधूरा सा इतिहास है जो नाथों और
सिद्धों की एक झलक देता है. संक्षिप्त मे वर्तमान नाथ सप्रदाय से पहले एक नाथ
संप्रदाय था जिसे सिद्ध संप्रदाय कहा जाता था. इसी सिद्ध संप्रदाय के भागों को
ब्रजयानी या कौलाचारी कहा जाता है. किन्तु सिद्ध संप्रदाय के योगी बड़े ही गुप्त
नियमों का पालन कर गुफाओं कंदराओं में अपना जीवन जीते थे औरआज भी लगभग लुप्त हो
चुकी ये परम्परा आखिरी सांस लेती हुई
भी जिन्दा है. भारत वर्ष की सबसे पुरानी परम्परा
में आप भी जुड़ कर इस विराट का हिस्सा बन सकते हैं. हिमालय पर्वत पर रहने वाले
महायोगी आपकी प्रतीक्षा में हैं. अब सिद्ध नाथ परम्परा को आपको आगे बढ़ाना है और
स्वयं प्राप्त करना है वो अमूल्य ज्ञान जिस कारण भारत को पूजा जाता है, जो जीवन को पूर्ण कर देता है |
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