राजा भर्तृहरि..
जीवन चरित परम्परानुसार भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक
के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से ५६ वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है
जो विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा
होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे, अत: इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा।
विक्रमसंवत् के
प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं।
कुछ लोग ईसवी सन् ७८
और कुछ लोग ई० सन् ५४४ में इसका प्रारम्भ मानते हैं। ये दोनों मत भी अग्राह्य
प्रतीत होते हैं।
फारसी ग्रंथ कलितौ दिमन: में पंचतंत्र का एक
पद्य 'शशिदिवाकर
योर्ग्रहपीडनम्' का भाव उद्धृत है।
पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन
है। संभवत: पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा।
फारसी ग्रंथ ५७९ ई०
से ५८१ ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था।
इसलिए राजा भर्तृहरि
अनुमानत: ५५० ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आये थे।
भर्तृहरि उज्जयिनी
के राजा थे। ये 'विक्रमादित्य'
उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय
के बड़े भाई थे।
इनके पिता का नाम
चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे।
इनके आविर्भाव काल
के सम्बन्ध में मतभेद है। इनकी जीवनी विविधताओं से भरी है।
राजा भर्तृहरि ने भी अपने काव्य में अपने समय का
निर्देश नहीं किया है।
अतएव दन्तकथाओं, लोकगाथाओं तथा अन्य सामग्रियों के आधार पर इनका
जो जीवन-परिचय उपलब्ध है वह इस प्रकार है :
इन्होनें सुन्दर और
रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा
श्रृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं।
इस शतकत्रय के अतिरिक्त, वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ
भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है।
कुछ लोग भट्टिकाव्य
के रचयिता भट्टि से भी उनका ऐक्य मानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य
नामक उपपंथ के ये ही प्रवर्तक थे।
चीनी यात्री इत्सिंग
के अनुसार इन्होंने बौद्ध-धर्म ग्रहण किया था परंतु अन्य सूत्रों के अनुसार ये
अद्वैत वेदान्ताचार्य थे।
चीनी यात्री इत्सिंग
के यात्रा विवरण से यह ज्ञात होता है कि ६५१ ईस्वी में भर्तृहरि नामक एक वैयाकरण
की मृत्यु हुयी थी।
इस प्रकार इनका
सातवीं शताब्दी का प्रतीत होता है परन्तु भारतीय पुराणों में इनके सम्बन्ध में
उल्लेख होने से संकेत मिलता है
कि इत्सिंग द्वारा
वर्णित भर्तृहरि कोई अन्य रहे होंगे। भृतहरि जी की एक यह भी कथा पढ़ने को मिली है
कि इनके एक और रानी अनंगसेना थी
जिसको राजा बहुत प्यार करते थे।उसका राजा के
घोड़े के चरवाहे चंद्रचूड़ से भी प्यार था और सेनापति से भी था।
उस सेनापति का
नगरवधू रूपलेखा के घर भी आना जाना था।राजा भी उस रूपलेखा के यहाँ चंद्रचूड़ कोचवान
के साथ बग्घी में बैठकर जाते थे।इस तरह चंद्रचूड़ और सेनापति दोनों का ही रानी
अनंगसेना और रूपलेखा से प्यार का सम्बन्ध था।यह बात योगी गोरखनाथ जी को पता चली तो
उन्होंने ही किसी ब्राह्मण के साथ अमरफल भेजा। राजा ने वो अमरफल रानी अनंगसेना को
दिया।रानी ने वो अमरफल चंद्रचूड़ को दिया।चंद्रचूड़ जब उस अमरफल को लिया और जब वो
राजा भर्तहरी को रूपलेखा के यहाँ ले गया।तब राजा जब मदहोश हो गया तब चंद्रचूड़ ने
उसके साथ प्यार कर के वो अमरफल रूपलेखा को यह कहकर दे दिया
की वो उसको खायेगी तो अमर हो जायेगी और उसका
चिरकाल तक यौवन बना रहेगा। वही फल रूपलेखा ने राजा को दे दिया की वो उसको खाएंगे
तो अमर हो जायेंगे।वो खुद के जीवन से घृणा करती थी। उस फल को देख राजा क्रोधित हो
गए।
पूछने पर रूपलेखा ने
चंद्रचूड़ का नाम बताया की उसीने उसको अमरफल दिया था।जब चंद्रचूड़ ने को राजा
तलवार निकाल कर सच पूछा तो उसने रानी अनंगसेना के साथ अपने सम्बन्ध कबूले और
सेनापति का भी भेद बताया।
उस दिन अमावस्या की
रात थी।राजा आगबबूला होकर नंगी तलवार लिए शोर करता हुआ अनगसेना के आवास की तरफ बढ़
चला।अनगसेना ने राजा के क्रोध से डरकर सच मान लिया।लेकिन उसी अमावस्या की रात रानी
ने आत्मदाह कर लिया।सईस चंद्रचूड़ को देश निकाला दिया गया और सेनापति को मृत्युदंड
दिया गया।
अब राजा उदास रहते
थे।पिंगला ने ही उनको आखेट के लिए भेजा था।फिर आखेट के समय एक सैनिक मारा गया तो
उसकी पत्नी उसकी देह के साथ सती हो गई।
राजा सोच में पड़
गया।एक नारी थी अनगसेना।एक नारी है रूपलेखा।और एक नारी है उस सैनिक की पत्नी। क्या
है नारी?? अब पिगला वाली बात
आती है जब राजा की मौत का झूठा समाचार सुनते ही रानी मरने को तैयार हो जाती है।
जब गोरखनाथ जी मृत
हिरन को जीवित कर देते है तब वो राजपाट से बहुत ऊबे हुए होते है।
गोरखनाथ जी एक शर्त रखते हैं कि वो रानी पिंगला
को माता कहकर महल से भिक्षा लाएं तो ही वे उनको अपना शिष्य बनायेगे।रानी पिगला
बहुत पतिवृता थी।
भगवा धारण करके राजमहल के द्वार आकर राजा भृतहरि
आवाज लगाते है:-अलख निरंजन।माता पिंगला भिक्षाम् देहि। पिंगला रानी की आँखों से जल
धारा बह निकलती है।
काफी वार्तालाप के
बाद रानी भिक्षा पात्र में डाल देती है। इसके बाद गोरखनाथ जी उनको शिष्य बनाकर
अपने साथ ले जाते हैं।
किंवदन्तियाँ
इनके जीवन से
सम्बन्धित कुछ किंवदन्तियाँ इस प्रकार है –
एक बार राजा
भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिये गये हुए थे। वहाँ
काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब
घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में
उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। जिसके आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने
उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज,
यह मृगराज ७ सौ हिरनियों का पति और
पालनकर्ता है। इसलिये आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी
और हिरन को मार डाला जिससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण
छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा- तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं
कहता हूँ उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगीबाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की
मिट्टी पापी राजा को दे दो। हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित
हो उठा। हिरन का कलेवर घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे। रास्ते में उनकी
मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को
जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे
जीवनदान दे सकता हूँ कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा।
राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली।भर्तृहरि ने वैराग्य क्यों ग्रहण किया यह बतलाने
वाली अन्य किंवदन्तियां भी हैं जो उन्हें राजा तथा विक्रमादित्य का ज्येष्ठ भ्राता
बतलाती हैं। इनके ग्रंथों से ज्ञात होता है कि इन्हें ऐसी प्रियतमा से निराशा हुई
थी जिसे ये बहुत प्रेम करते थे। नीति-शतक के प्रारम्भिक श्लोक में भी निराश प्रेम
की झलक मिलती है। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने प्रेम में धोखा खाने पर वैराग्य
जीवन ग्रहण कर लिया था, जिसका विवरण इस
प्रकार है। इस अनुश्रुति के अनुसार एक बार राजा भर्तृहरि के दरबार में एक साधु आया
तथा राजा के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए उन्हें एक अमर फल प्रदान किया। इस
फल को खाकर राजा या कोई भी व्यक्ति अमर को सकता था। राजा ने इस फल को अपनी प्रिय
रानी पिंगला को खाने के लिए दे दिया, किन्तु रानी ने उसे स्वयं न खाकर अपने एक प्रिय सेनानायक को दे दिया
जिसका सम्बन्ध राजनर्तिकी से था। उसने भी फल को स्वयं न खाकर उसे उस राजनर्तिकी को
दे दिया। इस प्रकार यह अमर फल राजनर्तिकी के पास पहुँच गया। फल को पाकर उस
राजनर्तिकी ने इसे राजा को देने का विचार किया। वह राजदरबार में पहुँची तथा राजा
को फल अर्पित कर दिया। रानी पिंगला को दिया हुआ फल राजनर्तिकी से पाकर राजा
आश्चर्यचकित रह गये तथा इसे उसके पास पहुँचने का वृत्तान्त पूछा। राजनर्तिकी ने
संक्षेप में राजा को सब कुछ बतला दिया। इस घटना का राजा के ऊपर अत्यन्त गहरा
प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने संसार की नश्वरता को जानकर संन्यास लेने का निश्चय कर
लिया और अपने छोटे भाई विक्रम को राज्य का उत्तराधिकारी बनाकर वन में तपस्या करने
चले गये। इनके तीनों ही शतक उत्कृष्टतम संस्कृत काव्य हैं। इनके अनेक पद्य
व्यक्तिगत अनुभूति से अनुप्राणित हैं तथा उनमें आत्म-दर्शन का तत्त्व पूर्णरूपेण
परिलक्षित होता है।
विष्य पुराण से ज्ञात होता है कि राजा विक्रमादित्य का समय अत्यन्त
सुख और समृद्धि का था। उस समय उनके राज्य में जयंत नाम का एक ब्राह्मण रहता था।
घोर तपस्या के परिणाम
स्वरूप उसे इन्द्र के यहाँ से एक फल की प्राप्ति हुई थी जिसकी विशेषता यह थी कि
कोई भी व्यक्ति उसे खा लेने के उपरान्त अमर हो सकता था।
फल को पाकर ब्राह्मण अपने घर चला आया तथा उसे
राजा भर्तृहरि को देने का निश्चय किया और उन्हें दे दिया। एक अन्य अनुश्रुति के
अनुसार भर्तृहरि विक्रमादित्य के बड़े भाई तथा भारत के प्रसिद्ध सम्राट थे।
वे मालवा की राजधानी उज्जयिनी में न्याय पूर्वक
शासन करते थे। उनकी एक रानी थी जिसका नाम पिंगला बताया जाता है।
राजा उससे अत्यन्त
प्रेम करते थे, जबकि वह महाराजा से
अत्यन्त कपटपूर्ण व्यवहार करती थी।
यद्यपि इनके छोटे
भाई विक्रमादित्य ने राजा भर्तृहरि को अनेक बार सचेष्ट किया था तथापि राजा ने उसके
प्रेम जाल में फँसे होने के कारण
उसके क्रिया-कलापों पर ध्यान नहीं दिया था। उस
अनुश्रुति के आधार पर यह संकेत मिलता है कि भर्तृहरि मालवा के निवासी तथा
विक्रमादित्य के बड़े भाई थे।
उज्जैन के राजा भरथरी के पास 365
पाकशास्त्री यानि रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के
लिए भोजन बनाने के लिए। एक रसोइए को वर्ष में केवल एक ही बार भोजन बनाने का मोका
मिलता था। लेकिन इस दौरान भरथरी जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तो
भिक्षा मांगकर खाने लगे थे।एक बार गुरु गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहा,
‘देखो,
राजा
होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और
दृढ़निश्चयी है।‘ शिष्यों ने कहा, ‘गुरुजी ! ये तो
राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो बावर्ची
रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा और कैसे काम, क्रोध,
लोभ
रहित हो गए?’गुरु गोरखनाथ जी ने राजा भरथरी से कहा,
‘भरथरी!
जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।’ राजा भरथरी नंगे
पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे। गोरखनाथ
जी ने दूसरे शिष्यों से कहा, ‘जाओ, उसको ऐसा धक्का
मारो कि बोझ गिर जाए।‘ चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और
भरथरी गिर गए। भरथरी ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन, न
आंखों में आग के गोले, न होंठ फड़के। गुरु जी ने चेलों से कहा,‘देखा!
भरथरी ने क्रोध को जीत लिया है।’शिष्य बोले, ‘गुरुजी! अभी तो
और भी परीक्षा लेनी चाहिए।’ थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने
योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भरथरी को महल दिखा रहे थे। युवतियां नाना
प्रकार के व्यंजन आदि से सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे। भरथरी युवतियों को देखकर
कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही
गए।गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहा, अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया
है कि भरथरी े काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।शिष्यों ने कहा,
गुरुदेव
एक परीक्षा और लीजिए। गोरखनाथजी ने कहा, अच्छा भरथरी हमारा शिष्य बनने के लिए
परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर
पैदल यात्रा करनी होगी।’भरथरी अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी
इलाका लांघते-लांघते राजस्थान की मरुभूमि में पहुंचे। धधकती बालू, कड़ाके
की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए। एक दिन, दो दिन यात्रा
करते-करते छः दिन बीत गए।सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय
चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे। गोरखनाथ जी बोले, ‘देखो, यह
भरथरी जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी
नहीं बैठेगा।’ अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भरथरी का
पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर
पैर पड़ गया हो।‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया? छायावाले
वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में
यात्रा करने की।’ कूदकर दूर हट गए। गुरु जी प्रसन्न हो गए कि
देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा,
वह
मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’गोरखनाथ
जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और
शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी। शिष्य बोले, ‘गुरुजी! यह तो
ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।’ गोरखनाथ जी (रूप
बदल कर) भर्तृहरि से मिले और बोले, ‘जरा छाया का उपयोग कर लो।’ भरथरी
बोले, ‘नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि
में चलूं।’गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।’
थोड़ा
आगे गए तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि कंथा
(फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे,
फिर
भी भरथरी ने ‘आह’ तक नहीं की।भरथरी तो और अंतर्मुख हो गए,
’यह
सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही
तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ जी
ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भरथरी के प्राण कंठ तक आ
गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके
नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी।एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर
देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। उनका इतना
सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए।भरथरी ने दंडवत प्रणाम किया।
गुरुजी बोले, ”शाबाश भरथरी, वर मांग लो।
अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा
दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन
तुम उनके चक्कर में नहीं आए। तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो।
भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे
सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है। आप मुझसे संतुष्ट हुए,
मेरे
करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए।’ गोरखनाथ
बोले, ‘नहीं भरथरी! अनादर मत करो। तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा,
कुछ-न-कुछ
मांगना ही पड़ेगा।’ इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई
दी। उसे उठाकर भरथरी बोले, ‘गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई
में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।’गोरखनाथ जी और
खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां
कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल
दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम
धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में। एक महीना भी नहीं होने
दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए।’आदेश 🔱🚩🕉🔥📿💎☄