Monday, December 4, 2023

योगी गुरू गोरक्षनाथ


योगी गुरू गोरक्षनाथ









योगी गुरू गोरक्षनाथ



                           नारदपुराण तथा स्कन्दपुराण से प्रमाणित है, किसी ब्राह्मण नेज्योर्तिवित के आदेश से गण्डान्तनक्षत्र में उत्पन्न निज पुत्र को ‍अनिष्ट जानकर उसका समुद्र मे परित्याग किया। वह बालक अतुल महिशाली परमेश्वयर की गतिविधि से किसी महा्मत्स्य का भोजन बना। वह ‍द्विजपुत्र दयामय की अघटित घटना का अचिन्त्य रचना-चातुरी चमत्कार से काल के पाश मे नवेष्टित हो जीवित ही रहा। एक बार श्री पार्वती अमरकथा विषयक प्रगाढ़ प्रर्थना के वशीभूत हो भूतनाथ भगवान महेश्वकर कैलाश शैल को त्याग कर पार्वती को अमरकथा सुनाने के लिए महा पर्वत लोकालोक पर पहुंचे। वह महाशैल मणियों से भूषित था अतएव उसकी शोभा अनूठी थी।  जिस प्रकार महावायु मेघमण्डल को दिगन्तरों मे अपने वेग से प्रस्थानित करता है, वैसे ही अमर कथा सुनाने को एकान्त स्थान चाहने वाले श्री मूलनाथ ने तीन ताल द्वारा सकल पशु पक्षी वर्ग को उस स्थान से हटाया। सर्वपूज्य भगवान श्री महादेवी को अमर कथा सुनाने को अवहित हो गए। परमकारूणिक भक्तवत्सल श्री आदिनाथ आशुतोष ने भवानी सपर्या से से संतुष्ट ‍हो मृत्यं को जीतने मे समर्थ उस अमर कथा का उपदेश किया। बहुत काल कथा सुनते बिता, श्री पार्वती योगनिद्रा मे अवस्थित ‍हो गई। इसी अवसर पर तेजोभार से प्रपीडित वही महामत्स्य जिसने अग्रजन्मा सुत को ग्रसित किया, उसी सागर तट पर आ पहुंची एवं कथा हुंकृति को प्रकट किया, आदिदेव कथा सुनाते ही रहे।  भगवान आदिनाथ ने ‍द्विजशिशु पर अनुग्रह किया, जिससे कोई कष्ट न पाकर सुख से निकलकर भगवान के निकट आ विराजा और चरणों मे प्रणाम किया। भगवान महेश्वअर पूछने लगे हे वत्स ! महामत्स्य के उदर में तुम्हारा निवास किस असाधारण कारण हुआ, सत्य कहो। बालक बोला है सर्वज्ञ ! हे सर्वशाक्तिमान !! हे दयामय !!! आप स्वयं जानते है मै क्या कहूं। इस प्रकार बालभाषित माधुर्य से निरतिशय संतुष्ट होकर आदिशक्ति जगदम्बा से भगवान मूल नाथ इस प्रकार बोले। हे शैलराजपुत्री ! यह बालक आपका पुत्र है, यह दिनमणि के सदृश्य संसार का प्रधान नेता होगा एवं सर्वदा प्रसन्नचित रहेगा, इसको पराजित करने वाला कोई नही होगा। भगवान आदिनाथ द्विजपुत्र को आशीर्वाद देकर बोले हे वत्स तुम मत्स्य के उदर सन्निधान से प्रगट हुए हो अत: तुम्हारा नाम संसार में मत्स्यनाथ या मत्स्येन्द्र नाथ होगा,क्यांके तुम मत्स्यावतार मत्स्यों के इन्द्र हो। अब जाओ समस्त लोको में भ्रमण करो। योग विद्या का विस्तार करो, यही हम दोनो का आदेश है। मत्स्येन्द्रनाथ बोले हे ! नटराज करूणामय !! यहद सर्वर आपका ही अनुपमानुग्रह है, मै कृतकृत्य हूं। महामप्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ ने भगवान एवं भागवती से आदेश प्राप्त कर योग विद्या बु‍द्धि के लिए वहां से प्रयाण किया। कुछ काल तक योग विद्या के प्रचार करने के अनन्तर लोकनाथ महाप्रकाश सिद्धनाथ जी के मन मे भगवान आदिनाथ की तपश्च र्या करने का विचार प्रकट हुआ, भगवान के सात्विक ध्यान में स्थित हो गए एवं मनों रूपी कुसुमों से आदिनाथ परमेश्वकर की आराधना करने लगे। लोकनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी के चिरकाल पवित्र तप से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हो गए एवं प्रकट होकर बोले हे नित्यनाथ ! मै तुम्हारे तप से निरतिशय प्रसन्न हूं, स्वेच्छानुकूल वर मांगो ! सिद्धनाथ बोले हे प्रभो यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैवर देना वाहते है तो मै इसी को उत्तम समझता हूं और याचना करता हूं कि आप मेरे सहायक होकर अवतार को धारण करें। मैं स्वयं आकैर तुम्हारी सहायता करूंगा, तब तक योग विद्या ‍विकास करो। ऐसा कहकर श्री महादेव कैलाश अद्रि को चले गये, करूणामय उस समय आर्य्यावलोकितेश्वऔर महाप्रकाश सिद्धनाथ के योग प्रचार से यहम योगविद्या, राजयोग, लययोग, हटयोग, मन्त्रयोग, ध्यान योग, विज्ञानयोग, प्रभृति विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुई। कुछ समय के चले जाने के पर अमिताभ करूणामय के वर का स्मरण भगवान मूलनाथ ने किया, उसी समय भगवान ने श्री महादेवी के पूर्वव्रत्त से प्रेरित होकर हृइय को उसी दिशा मे पतिणत किया। उमा का अन्तरस्थल अहंकार सागर में वीचि लेने लगा, अभिमान की मात्रा आच्छादित अचिन्त्य शक्ति के आवेश मे आकर श्री पार्वती भगवान महेश्वनर से बोली- हे आदिदेव आदिनाथ ! जहाँ-जहाँ आप हैं वहाँ-वहाँ मै आपसे पृथक् नही, मेरे बिना आपकी कोई सत्ता नही, मदविशिष्ट ही आप है।
हे महादेव आदिनाथ आप विष्णु है तो मै लक्ष्मी हूं, आप महेश्वार है तो मै महेश्वथरी हूं, आपशिव है तो मै शक्ति हूं, आप ब्रह्मा है तो मै सावित्री हूं, आप इन्द्र है तो मै इन्द्राणी हूं, आप अरूण है तो मै बरूणानी हूं, आप पुरूष है तो मै प्रकृति, आप ब्रह्म है तो मै माया,मेरे से पृथक आप नही है।  जगदम्बा ‍के वचनो का स्मरण कर मूलनाथ बोले हे महेश्व री ! जहाँ -जहाँ तुम हो वहाँो-वहाँ मै अवश्यृ हूं, यह कथन सत्य है, और जहाँ- जहाँ मै हूं वहाँ- वहाँ आप विराजमान है, यह कथन सत्य नही क्योंकि जहाँ-जहाँ घट है, वहाँ-वहाँ मृत्तिका अवश्यव है, किन्तु जहाँ मृत्तिका है वहाँ घट नही आकाश सर्व पदार्थौ मे व्यापक है, सर्व पदार्थ आकाश मे व्यापक नही महादेव जी ने विचार किया जगदम्बा के कथन का समाधान और महाप्रकाश को वर प्रदान इन दोनो का पालन समयापेक्षी अवश्यह है, बस क्या था? भगवान आदि नाथ मूलनाथ ने अपने आत्मबल समुदाय ‍को दो भागों मे विभाजित किया। एक समुदाय से पूर्व रूप मे ही अवस्थित रहे दूसरे समुदाय को गोरक्षना‍थ रूप मे परिणत किया। वे गोरक्षनाथ एकान्त निर्जन किसी विशेष पर्वत मध्य शुद्ध स्थान मे विराजमान होकरसमाधिस्थ हो गये। महेश्वकरानन्द भगवान गोरक्षनाथ के प्रबल तपोबल प्रताप से वह पर्वतराज अनुपम रूप से सुशोभित हुआ। कुछ ही समय के पश्चावत योग सम्प्रदाय प्रवर्तक श्री गोरक्षनाथ जिस पर्वत पर ज्ञान मय तप मे ‍विराजमान थे, वहाँ जगदम्बा को साथ लेकर भगवान आदिनाथ शिव ने गमन किया। मार्ग मे ही कुछ विश्राम कर भगवान श्री भवानी से बोले हे गौरि जो यह पर्वत समक्ष दिखता है, इसमे एक महान परमपुरूष योगीराज चिरकाल से समाधिस्थ है आप जा कर उनके दर्शन करें। आदिनाथ भगवान मूलनाथ की आज्ञा पाकर महादेवी ने वहाँ से प्रस्थान किया। भगवान गोरक्षनाथ को समाधि मे बैठे ऐसे देखा मानों बुत से सूर्य मिलकर ही प्रकाश कर रहे हैं। श्री शिव का रूप पूज्य जानकर हाथ मे पुष्प लेकर श्री देवी ने गोरक्षनाथ को हृदय से आदेश किया महादेवी ने विभिन्न विचारों के पश्चारत श्री महादेव जी के कथन का स्मरण किया, ऐसा न हो मेरे ‍ही कथन का उत्तर देने के लिए यह कोई अचिन्त्य सामग्री रचाई गई ‍हो? योगी की परीक्षा का यही समय है। सत्यासत्य का निश्चाय परीक्षा के बिना नही होता, माया के कार्यो को ही जीतना कठिन है, माया तो दूर रही उसे केसे जिता जा सकता है। मेरानाम माया है मै सबसे बडी शक्ति हूं, मैने ब्रह्मा आदि को भी बिना वश किये नही छोड़ा। उमा देवी महेश्वेरानन्द गोरक्षनाथ भगवान की परीक्षा लेने को तत्पर हो गई, चतुर्था अपनी योग माया से उत्तम जगन्मात्र पदार्थो को रच कर प्रत्यक्ष रूप मे उपस्थित कर दिखाया और कोई पदार्थ शेष नही रहा, अवस्थित भगवान गोरक्षनाथ के समक्ष महामाया के सहस्त्रों प्रयत्न इस प्रकार अस्त हो गये, जैसे मध्यान्हकालिक मार्त्तण्ड के समक्ष तारागण विजीन हो जाते हैं। भगवती ने महादेव के वचनों को सत्य समझा, यह मैरे लिये ही अद्भुत चमत्कार का आकार खड़ा किया है।ऐसे विचार करती हुई पार्वती देवी को गोरक्षनाथ बाले हे देवी ! जाओ भगवान आदिनाथ आपका स्मरण करते है। योगाचार्य के अनुपम उपदेशामृत को पीकर वहाँ से भवानी ने भगवान के पास प्रस्थान किया, पहुंचकर मूलनाथ आदिनाथ भगवान को आदेश किया और कहा हे ईश्वकर आपका कथित संकल्प यर्थात है। मेरे बिना भी आप विद्यमान है, अत: आपकी सत्ता ही प्रधान है, यह मैने अनुभव किया, शक्ति का लय शक्तिमान के ही अभ्यन्तर से होता है। हे ईश्वमर ! ऐसा यह कोन वस्थित योगीश्वहर है, जिसने मेरी शक्ति ‍को कुछ नही समझा। वह अपनी समाधि मे ही अचल रहात महादेव बोले हे महेश्व!री ! जिस योगी का तुमने दर्शन किया है उस यागीश्व र का नाम गोरक्षनाथ है। सर्व देव मनुष्यों का इष्ट देव है, माया से परे एवं काल का भी काल है समयापेक्षित अनेको रूप से प्रकृति चक्रका संचालक है। हे महादेवी मै ह गोरक्षनाथ हूं, मेरा स्वरूप ही गोरक्षनाथ है। हम दोनो मे किञ्चित भी अन्तर नहीं, प्रकश से भिन्न प्रकाश नहीं रहता। हे महादेवी ! संसार का कल्याण ‍हो वेद गौ पृथ्वी आदि की रक्षा हो इस हेतु से मेने गोरक्ष स्वरूप को धारण किया है।   जब जब योग मार्ग की रक्षा मे अवस्थित होता हूं यह गोरक्षनाथ नाम मेरे नामा में उत्कृष्ट है। भगवान मूलनाथ बाले हे महेश्वबरी ! जो पुरूष योग विद्या को सेवन करता है वही मृत्यु को जीतता है, और उपायों मे मृत्यु नही जीती जाती। अन्य उपायों से थोड़ी बहुत आयु कढ़ सकती है। योगबल महाबल है, योगी महाबली है, चाहे एक रहे अनेक होकर विचरे चाहे भूमि मे रहे चाहे आश्रम में भ्रमण करे चाहे सो युग तक रहे, चाहे सदा अमर रहे, स्थूल शरीर से रहे, सूक्ष्म शरीर से, चाहे श्रोता से सुने, चाहे बिना श्रोता से, चाहे राजिका होकर रहे, चाहे पर्वत होकर, वह योगी ब्रह्मा विष्णु के कार्यो को भी करने मे समथ् है। भवानी बोली हे प्रभों ! आपको कोटिश: नमस्कार आपकी माया अनन्त है। जगत् आपका उद्यान है,आप उसके माली है। इस प्रकार श्री महादेवी पार्वती से पूज्यमान महादेव जी कैलाश को पधारे। इधर कमलासन पर विराजमान श्री ब्रह्मा जी को योगी नारद बोले हे प्रभों ! पहले मेनेजर आपसे यह कथा सुनी है, हादेव जी ने सिद्घनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी को वर दिया था कि आप नाथवंश के तथा योग मार्ग के प्रर्वतक होवेंगे तो फिर संसार मे उन्होने किस प्रकार योग का प्रचार किया और फिर मत्स्येन्द्रनाथ जी ने किस महामहिमशाली शिष्य को इस योग का उपदेश किया, नाथ नाम पूर्वक योगियों का सम्प्रदाय केसे प्रवृद्घ हुआ। ब्रह्मा जी बाले हे नारद ! उसके पश्चाकत महेश्वनर मूलनाथावतार भगवान गोरक्षनाथ जहाँ महा प्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ जी समुद्र तट पर तप कर रहे थे वहाँ को पधारे वहाँ गोरक्षनाथ जी ने जाकर मत्स्येन्द्रनाथ जी को समाधि द्वारा मनोयोग को प्रबोधित कर योगपद्धति को पूछा और विनीत भाव से स्तुति की एवं नाथपदयोग वंश को प्रवर्त्तकता ‍को प्राप्त किया इस भगवान आदिनाथ मत्स्येन्द्रनाथ परम्परागत योग से गोरक्षनाथ ने योग को शक्तिपात, करूणावलोकन, आपदेशिक इन ‍तीन शिक्षाओं के द्वारा अनेक राजा महाराजा ॠषि-मुनियों को कृतार्थ किया और उनको दिव्य देकर अमर पद का भागी बनाया।`
 गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है,
 किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं।
 गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए।
 ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया।
शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है।
 इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४० बताई जाती है
 किन्तु डा. बड़्थ्याल ने केवल १४ रचनाएं ही उनके द्वारा रचित मानी है जिसका संकलन गोरखबानीमे किया गया है।
 जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे।
 आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।
 गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए।
 शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है।
 हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि।
13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया।
 पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए।
 आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।यह सम्प्रदाय भारत का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे एंव अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है।
इसका आरम्भ आदिनाथ शंकर से हुआ है और इसका वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ भगवान शंकर के अवतार हुए है।
इनके प्रादुर्भाव और अवसान का कोई लेख अब तक प्राप्त नही हुआ।पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि
तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है।
श्री गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को उपदेश दिया
 और हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ जन समाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया।
श्री गोरक्षनाथ ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं।
श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए।
उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द प्राप्त किया तथा जन-कल्याण में अग्रसर हुए।
इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए।श्री गोरक्षनाथ ने संसारिक मर्यादा की रक्षा के अर्थ
 श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और चिरकाल तक इन दोनों में शका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा।
श्री मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं।
यों तो यह योगी सम्प्रदाय अनादि काल से चला आ रहा किन्तु इसकी वर्तमान परिपाटियों के नियत होने के काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व है।
 ऐस शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ से सिद्ध होता है।बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुअ
जिसके सिद्धान्त बहुत ऊँचे थे, किन्तु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर भ्रष्टाचारी होने लगे थे।
इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ सम्प्रदाय क निर्माण किया और तत्कालिक 84 सिद्धों में सुधार का प्रचार किया।
श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं।
 यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं।
 काबुल-गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था। इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं
 यथाः- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि। श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी।
 कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है।  
श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी।
 कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है।
 बिना कान फटे साधु को ओघड़कहते है और इसका आधा मान होता है। महंत रामनाथ जी कहते है।
 भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाये जाते हैं।यह सम्प्रदाय अवधूत सम्प्रदाय है।  अवधूत शब्द का अर्थ होता है
 स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहितजैसा कि सिद्ध सिद्धान्त पद्धतिमें लिखा हैः-सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।
अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह अवधूत है। 
पुनश्चः-वचने वचने वेदास्तीर्थानि च पदे पदे।इष्टे इष्टे च कैवल्यं सोऽवधूतः श्रिये स्तुनः।”“एक हस्ते धृतस्त्यागो भोगश्चैक करे स्वयम् अलिप्तस्त्याग भोगाभ्यां सोऽवधूतः श्रियस्तुनः॥
इस सम्प्रदाय में नव नाथ पूर्ण अवधूत हुए थे और अब भी अनेक अवधूत विद्यमान है।नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है।
 परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है।
 योगी लोग अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे सिलेकहते है।  गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है यह लोग शैव हैं
 अर्थात शिव की उपासना करते है।  षट् दर्शनों में योग का स्थान अत्युच्च है और योगी लोग योग मार्ग पर चलते हैं अर्थात योग क्रिया करते है जो कि आत्म दर्शन का प्रधान साधन है।
 जीव ब्रह्म की एकता का नाम योग है। चित्त वृत्ति के पूर्ण निरोध का योग कहते है।वर्तमान काल में इस सम्प्रदाय के आश्रम अव्यवस्थित होने लगे हैं।
 इसी हेतु अवधूत योगी महासभाका संगठन हुआ है
और यत्र तत्र सुधार और विद्या प्रचार करने में इसके संचालक लगे हुए है।

गोरखनाथ का 'जंजीरा'
ऊँ गुरुजी मैं सरभंगी सबका संगी, दूध-माँस का इकरंगी, अमर में एक तमर दरसे, तमर में एक झाँई, झाँई में पड़झाँई, दर से वहाँ दर से मेरा साईं, मूल चक्र सरभंग का आसन, कुण सरभंग से न्यारा है,
 वाहि मेरा श्याम विराजे ब्रह्म तंत्र ते न्यारा है, औघड़ का चेला, फिरू अकेला, कभी न शीश नवाऊँगा, पत्र पूर पत्रंतर पूरूँ, ना कोई भ्राँत ‍लाऊँगा,
अजर अमर का गोला गेरूँ पर्वत पहाड़ उठाऊँगा, नाभी डंका करो सनेवा, राखो पूर्ण वरसता मेवा, जोगी जुण से है न्यारा, जुंग से कुदरत है
 न्यारी, सिद्धाँ की मूँछयाँ पकड़ो, गाड़ देवो धरणी माँही बावन भैरूँ, चौसठ जोगन, उल्टा चक्र चलावे वाणी, पेडू में अटकें नाड़ा, न कोई माँगे हजरता भाड़ा मैं ‍भटियारी आग लगा दूँ,
चोरी-चकारी बीज बारी सात रांड दासी म्हाँरी बाना, धरी कर उपकारी कर उपकार चलावूँगा, सीवो, दावो, ताप तेजरो,
 तोडू तीजी ताली खड चक्र जड़धूँ ताला कदई न निकसे गोरखवाला, डा‍किणी, शाकिनी, भूलां, जांका, करस्यूं जूता, राजा,
 पकडूँ, डाकम करदूँ मुँह काला, नौ गज पाछा ढेलूँगा, कुँए पर चादर डालूँ, आसन घालूँ गहरा, मड़, मसाणा, धूणो धुकाऊँ नगर बुलाऊँ डेरा,
ये सरभंग का देह, आप ही कर्ता, आप ही देह, सरभंग का जप संपूर्ण सही संत की गद्‍दी बैठ के गुरु गोरखनाथ जी कही।
 सिद्ध करने की विधि एवं प्रयोग : किसी भी एकांत स्थान पर धुनी जलाएँ। उसमें एक लोहे का चिमटा गाड़ दें।
नित्य प्रति धुनी में एक रोटी पकाएँ और वह रोटी किसी काले कुत्ते को खिला दें।
(रोटी कुत्ते को देने के ‍पहले चिमटे पर चढ़ाएँ।) प्रतिदिन आसन पर बैठकर 21 बार जंजीरा (मंत्र) का विधिपूर्वक पाठ करें।
21 दिन में सिद्ध हो जाएगा।


गोरख बोली सुनहु रे अवधू, पंचों पसर निवारी अपनी आत्मा एपी विचारो, सोवो पाँव पसरी ऐसा जप जपो मन ली |
सोऽहं सोऽहं अजपा गई असं द्रिधा करी धरो ध्यान | अहिनिसी सुमिरौ ब्रह्म गियान नासा आगरा निज ज्यों बाई |
इडा पिंगला मध्य समाई || छः साईं सहंस इकिसु जप | अनहद उपजी अपि एपी || बैंक नाली में उगे सुर | रोम-रोम धुनी बजाई तुर ||
 उल्टी कमल सहस्रदल बस | भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश ||
गगन मंडल में औंधा कुवां, जहाँ अमृत का वसा | सगुरा होई सो भर-भर पिया, निगुरा जे प्यासा । ।
अलख निरंजन ॐ शिव गोरक्ष ॐ नमो सिद्ध नवं अनगुष्ठाभ्य नमः पर ब्रह्मा धुन धू कर शिर से ब्रह्म तनन तनन नमो नमः नवनाथ में नाथ हे आदिनाथ अवतार , जाती
 गुरु गोरक्षनाथ जो पूर्ण ब्रह्म करतार संकट मोचन नाथ का जो सुमारे चित विचार ,जाती गुरु गोरक्षनाथ ,मेरा करो विस्तार ,
संसार सर्व दुख क्षय कराय , सत्व गुण आत्मा गुण दाय काय ,मनो वंचित फल प्रदयकय ॐ नमो सिद्ध सिद्धेश श्वाराया ,ॐ सिद्ध शिव गोरक्ष नाथाय नमः ।
मृग स्थली स्थली पुण्यः भालं नेपाल मंडले यत्र गोरक्ष नाथेन मेघ माला सनी कृता श्री ॐ गो गोरक्ष नाथाय विधमाहे शुन्य पुत्राय धी माहि तन्नो गोरक्ष निरंजन प्रचोदयात ||


      

 {सबदी }                                                          
                                                               
गुरु जी मैं हाथ जोड़ रहा मांग , जोग का भेद लखा दीजो |                                                      
ओ भेद लाख दीजो , गुरु जी मेरा भरम मिटा दीजो ||                                                             
... कौन खेत में कौन बीज है , कौन जुगत में जोग |                                                 
क्या सुनने और क्या देखण से , मेरे आप सजा दीजो ||                                                          
गुरु जी ....                         
बुद्धि खेत नाम जप बीजो , करम सुगम फल पावे |                                                   
सुरत - निरत कर तवरत करना ,                                                   
मोक्ष पदारथ लीजो ||                                                        
गुरु जी ....                         
कौन सहारा लता - वृक्ष का , कौन गुरु कौन चेला |                                                   
कौन अस्थाना कैसा मिलाना ,                                                          
हाँ धारण कर दीजो ||                                                       
गुरु जी ....                         
पवन सहारा बना मूल का , अंत में सुरति चेला |                                                       
मछेन्द्र 'गोरख' मिले तेरे कुटी में , तत्तव धारि जो ||                                                               
                                                               
गोरख वाणी {सबदी }                                                         
बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अजोचर ऐसा।।                    
गगन सिषर महि बालक बोलै ताका नाँव धरहुगे कैसा।।1।।                       
अदेषि देषिबा देषि बिचारिबा अदिसिटि राषिबा चीया।।                    
पाताल की गंगा ब्रह्मण्ड चढ़ाइबा, तहाँ बिमल-बिमल जल पीया।।2।।                       
इहाँ ही आछै इहाँ ही अलोप। इहाँ ही रचिलै तीनि त्रिलोक।।                       
आछै संगै रहै जुवा। ता कारणि अनन्त सिधा जोगेस्वर हूवा।।3।।                          
वेद कतेब न षाँणी बाँणी। सब ढँकी तलि आँणी।।                        
गगन सिषर महि सबद प्रकास्या। तहँ बूझै अलष बिनाँणीं।।4।।                    
अलष बिनाँणी दोइ दीपक रचिलै तीन भवन इक जोती।                          
तास बिचारत त्रिभवन सूझै चुणिल्यौ माँणिक मोती।।5।।                          
वेदे न सास्त्रे कतेबे न कुरांणे पुस्तके न बंच्या जाई।।                    
ते पद जांनां बिरला जोगी और दुनी सब धंधे लाई।।6।।                          
हसिबा षेलिबा रहिबा रंग। काम क्रोध न करिबा संग।।                    
हसिबा षेलिबा गाइबा गीत। दिढ करि राषि आपनां चीत।।7।।                      
हरिबा षेलिबा धरिबा ध्यांन। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियाँन।                       
हसै षेले न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।।8।।                     
सबदहिं ताला सबदहिं कूँची, सबदहिं सबद जगाया।                       
सबदहिं सबद सूँ परचा हूआ, सबदहिं सबद समाया।।9।।                          
गगन मँडल मैं ऊँधा कूवा, तहाँ अमृत का बासा।।                        
सगुरा होइ सु भरि भरि पीवै निगुरा जाइ पियासा।।10।।                          
गगने न गोपंत तेज न सोषंत पवने न पेलंत बाई।।                     
मही भारे न भाजंत उदके न डूबन्त कहौ तौ को पतियाई।।11।।                    
नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू दिढ करि राषहु चीया।।                     
काम क्रोध अहंकार निबारौ तौ सबै दिसंतर कीया।।12।।                          
थोड़ा बोलै थोड़ा षाइ तिस घटि पवनां रहै समाइ।।                       
गगन मंडल में अनहद बाजै प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै।।13।।                      
अति अहार यंद्री बल करै नासै ग्याँन मैथुन चित धरै।।                          
ब्यापै न्यंद्रा झंपै काल ताके हिरदै सदा जंजाल।।14।।                     
धूतारा ते जे धूतै आप, भिष्या भोजन नहीं संताप।।                      
अहूठ पटण मैं भिष्या करै, ते अवधू सिव पुरी संचरै।।15।।                        
यहु मन सकती यहु मन सीव। यहु मन पाँच तत्त का जीव।।                     
यहु मन लै जे उनमन रहै। तौ तिनि लोक की बाताँ कहै।।16।।                    
अवधू नव घाटी रोकि लै बाट। बाई बणिजै चौसठि हाट।।                         
काया पलटै अबिचल बिध। छाया बिबरजित निपजै सिध।।17।।                     
अवधू दंम कौ गहिबा उनमनि रहिबा, ज्यूँ बाजबा अनहद तूरं।।                     
गगन मंडल मैं तेज चमकै, चंद नहीं तहाँ सूरं।।18।।                      
सास उसास बाइकौ भषिबा, रोकि लेहु नव द्वारं।।                        
छठै छमासि काया पलटिबा, तब उनमँनी जोग अपारं।।19।।                        
अवधू प्रथम नाड़ी नाद झमकै, तेजंग नाड़ी पवनं।।                       
सीतंग नाड़ी ब्यंद का बासा, कोई जोगी जानत गवनं।।20।।                        
मन मैं रहिणाँ भेद न कहिणाँ, बोलिबा अमृत बाँणी।।                     
आगिला अगनी होइबा अवधू, तौ आपण होइबा पाँणी।।21।।                        
उनमनि रहिबा भेद न कहिबा, पीयबा नींझर पाँणीं।।                      
लंका छाड़ि पलंका जाइबा, तब गुरमुष लेबा बाँणी।।22।।                           
प्यंडे होइ तौ मरै न कोई, ब्रह्मंडे देषै सब लोई।।                        
प्यंड ब्रह्मंड निरंतर बास, भणंत गोरष मछ्यंद्र का दास।।23।।                     
उत्तरषंड जाइबा सुंनिफल खाइबा, ब्रह्म अगनि पहरिबा चीरं।।                      
नीझर झरणैं अमृत पीया, यूँ मन हूवा थीरं।।24।।                        
नग्री सोभंत बहु जल मूल बिरषा सभा सोभंत पंडिता पुरषा।।                      
राजा सोभंत दल प्रवांणी, यूँ सिधा सोभंत सुधि-बुधि की वाँणी।।25।।                        
गोरष कहै सुणहु रे अवधू जग मैं ऐसैं षैं रहणाँ।।                        
आँषैं देखिबा काँनैं सुणिबा मुष थैं कछू न कहणाँ ।।26।।                         
नाथ कहै तुम आपा राषौ, हठ करि बाद न करणाँ।।                       
यहु जुग है कांटे की बाड़ी, देषि देषि पग धरणाँ ।।27।।                    
दृष्टि अग्रे दृष्टि लुकाइबा, सुरति लुकाइबा काँनं।।                        
नासिका अग्रे पवन लुकाइबा, तह रहि गया पद निरबाँनं।।28।।                     
अरध उरध बिच धरी उठाई, मधि सुँनि मैं बैठा जाई।।                     
मतवाला की संगति आई, कथंत गोरषनाथ परमगति पाई।।29।।                    
गोरष बोलै सुणि रे अवधू पंचौं पसर निवारी।।                          
अपणी आत्माँ आप बिचारी, तब सोवौ पान पसारी।।30।।                          
षोडस नाड़ी चंद्र प्रकास्या द्वादस नाड़ी मानं।।                          
सहँसु्र नाड़ी प्राँण का मेला, जहाँ असंष कला सिव थांनं।।31।।                     
अवधू ईड़ा मारग चंद्र भणीजै, प्यंगुला मारग भाँमं।।                      
सुषमनां मारग बांणीं बोलिये त्रिय मूल अस्थांनं।।32।।                     
संन्यासी सोइ करै सर्बनास गगन मंडल महि माँडै आस।।                        
अनहद सूँ मन उनमन रहै, सो संन्यासी अगम की कहै।।33।।                      
कहणि सुहेली रहणि दुहेली कहणि रहणि बिन थोथी।।                     
पढ्या गुंण्या सूवा बिलाई खाया पंडित के हाथि रहि गई पोथी।।34।।                        
कहणि सुहेली रहणि दुहेली बिन षायाँ गुड़ मींठा।।                        
खाई हींग कपूर बषांणं गोरष कहै सब झूठा।।35।।                        
मूरिष सभा न बैसिबा अवधू पंडित सौ न करिबा बादं।।                          
राजा संग्रांमे झूझ न करबा हेलै न षोइबा नादं।।36।।                     
कोई न्यंदै कोई व्यंदै कोई करै हमारी आसा।।                    
गोरष कहै सुणौं रे अवधू यहु पंथ षरा उदासा।।37।।                      
यंद्री का लड़बड़ा जिभ्या का फूहड़ा। गोरष कहै ते पर्तषि चूहड़ा।।                    
काछ का जती मुष का सती। सो सतपुरूष उतमो कथी।।38।।                      
अधिक तत्त ते गुरू बोलिये हींण तत्त ते चेला।।                        
मन माँनै तौ संगि रमौ नहीं तौ रमौ अकेला।।39।।                      
" ग्यान सरीखा गिरु ना मिलिया, चित्त सरीखा चेला,                                                  
मन सरीखा मेलु ना मिलिया, ताथै, गोरख फिरै, अकेला !                          
कायागढ भीतर नव लख खाई, दसवेँ द्वार अवधू ताली लाई !"                    
कायागढ भीतर देव देहुरा कासी, सहज सुभाइ मिले अवनासी !                     
बदन्त गोरखनाथ सुणौ, नर लोइ, कायागढ जीतेगा बिरला नर कोई ! " 
सत नमो आदेश                     

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